पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५६९
अंधेर-नगरी

गोबरधन०––नहीं गुरुजी, हम फाँसी पड़ेंगे।

गुरु––नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।

गोबरधन०––स्वर्ग जाने में बूढा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति-अगति से क्या? मैं फॉसी चढूँगा।

(इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं––सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)

प० सिपाही––भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ नहीं पड़ता।

दू० सिपाही––हम भी नहीं समझ सकते कि यह कैसा गबड़ा है।

(राजा, मंत्री, कोतवाल आते हैं)

राजा––यह क्या गोलमाल है?

प० सिपाही––महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी पडूॅगा, गुरु कहता है मैं पडूँगा, कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है।

राजा––(गुरु से) बाबाजी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?

गुरु––राजा! इस समय ऐसी साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जायगा।

मंत्री––तब तो हमीं फाँसी चढेंगे।