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तीसरा दृश्य
स्थान--जयंती नगर का गृहोद्यान
(जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है)
(नेपथ्य मे बैतालिक गान)
प्र० वै०-नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि,
फूल-माल गरें बन झालरि सी लाई है।
भँवर-गुँजार हरि-नाम को उचार तिमि,
कोकिला सौ कुहुकि बियोग राग गाई है॥
'हरिचंद' तजि पतझार घर-बार सबै,
बौरी बनि दौरी चारु पौन ऐसी धाई है।
तेरे बिछुरे तें प्रान कंत कै हिमंत अंत,
तेरी प्रेम-जोगिनी बसंत बनि आई है॥
द्वि० वै०--पीरो तन पस्यौ फूली सरसो सरस सोई,
मन मुरझान्यौ पतझार मनो लाई है।
सीरी स्वास त्रिविध समीर सी बहति सदा,
अँखियाँ बरसि मधुझरि सी लगाई है॥
'हरिचंद' फूले मन मैन के मसूसन सों,
ताही सों रसाल बाल बदि कै बौराई है।