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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६७६

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सतीप्रताप


सत्य०--(कुछ उदास होकर) अच्छा। (सखियों के साथ सावित्री का प्रस्थान। उधर ही देखता है) यह क्या ? चित्त में ऐसा विकार क्यों ? क्या स्वर्ण और रत्न में भी मलिनता ? क्या अग्नि में भी कीट की उत्पत्ति ? उह ! फिर वही ध्यान ! यह क्या ! अब तो जी नहीं मानता। चलें आगे बढ़ कर बदली में छिपते हुए चंद्रमा की शोभा देखकर जो को शांति दें।

[जाता है

(जवनिका गिरती है)


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