इसका नाम स्यात् इसी कारण रखा गया कि इसमें जो कुछ वर्णन रहेगा वह एक तीर्थ यात्रिणी योगिनी द्वारा कथित तथा देखे हुए रूप में कहा गया रहेगा और स्त्री-समाज का भी वर्णन रह सकेगा।
इस नाटिका में भारतेंदुजी की निरीक्षण शक्ति का अच्छा विकास दिखलाई पड़ता है और साथ ही उसको मनोरंजक रूप में व्यक्त करने में भी वह बहुत सफल हुए हैं।
७—चन्द्रावली नाटिका
सं॰ १९३३ वि॰ में चन्द्रावली नाटिका की रचना हुई। यह नाटिका अनन्य प्रेम रस से प्लावित है और भारतेन्दु जी की उत्कृष्ट रचनाओं में से है। आरम्भ में एक शुद्ध विष्कम्भक देकर श्री शुकदेव जी तथा नारद जी से परम भक्तों के वार्तालाप द्वारा ब्रजभूमि के अनन्य प्रेम का माहात्म्य दिखलाते हुए नाटिका आरम्भ की गई है। ये दोनों पात्र केवल 'कथाशानां निदर्शकः संक्षेपार्थः' लाए गए हैं और इनसे नाटिका के मुख्य कथा-वस्तु से कोई सम्बंध नहीं है। इसी से कवि ने इन दोनों के आने, जाने आदि का कुछ भी पता नहीं दिया है। इसमें वीणा पर उत्प्रेक्षाओं की एक माला ही पिरो डाली गई है। पहिले अंक में चन्द्रावली जी तथा ललिता सखी के कथोपकथन से उसका श्रीकृष्ण पर प्रेम प्रगट होता है। दूसरे अंक में श्री चन्द्रावली जी अपना विरह वर्णन कर रही हैं और उपवन में कई सखियों से वार्तालाप भी होता है। विरहोन्माद में प्रिय के अन्वेषणार्थ जो