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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७०

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प्रलाप कराया गया है, वह यदि अभिनय की दृष्टि से कुछ अधिक लम्बा कहा जाय तो कह सकते हैं, पर अस्वाभाविक रत्ती भर भी नहीं होने पाया है। कोई भी सहृदय उसे पढ़कर उकता नहीं सकता। तीसरे अंक का अंकावतार गुप्त पत्र भेजने का रहस्य बतलाता है। उसके अनन्तर कई सखियो के साथ चन्द्रावली जी आती हैं और वार्तालाप में कार्य साधन का उपाय निश्चित होता है। इसमें भी विरह-कातरा रमणी का कथन नीरसों के लिए आवश्यकता से अधिक हो गया है पर विरहिणी को आवश्यक अनावश्यक समझने की बुद्धि ही नहीं रह जाती। महाकवि कालिदास ने भी लिखा है कि 'कामार्ताहि प्रकृति कृपणाश्चेतना चेतेनेषु।'

इन अंकों में वर्षा-वर्णन आया है और उसका विरहिणी के हृदय पर जो असर पड़ेगा वह पूर्ण रूप से दिखलाया गया है। वहाँ इन प्राकृतिक दृश्यों को चंद्रावली के मानवी जीवन का अंग बनाकर दिखलाना मूर्खता मात्र होती। चौथे अंक में पहले श्रीकृष्ण जी योगिनी बनकर आते हैं और फिर ललिता तथा चंद्रावली जी आती हैं। अंत में युगल प्रेमियों का मिलन होता है। इसमें यमुना जी की शोभा का नौ छप्पयों में अच्छा वर्णन हुआ है। इसकी एक बात पर एक समालोचक लिखते हैं कि "एक विचित्र आदर्श भी उपस्थित कर दिया गया है। कहाँ तो चंद्रावली की माता उसका बाहर आना जाना बंद कर देती है और कहाँ योगिनी का वेष धारण किए हुए श्रीकृष्णचन्द्रजी के आने तथा अपना वास्तविक रूप प्रकट करने पर ठीक उसी समय माता का यह सन्देशा भी आ जाता है कि 'स्वामिनी ने