पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६९०

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सतीप्रताप


बनदेवी--प्राणनाथ! देखो जब से सती-कुलतिलक श्रीसावित्री देवी के पवित्र चरण इस बन में पड़े हैं तब से इसकी शोभा दूनी हो गई है।


बनदेवता--इस बन में जिस शोभा के अंकुर को महात्मा सत्यवान ने लगा रक्खे थे उसे पतिप्राणा सावित्री ने अभिसिंचन कर के पूरी उन्नति पर पहुँचाया। जैसे प्यारी! तुमने हमारे प्रेमांकुर को सींचकर पुष्पान्वित किया।


बनदेवी--प्राणवल्लभ! पति भी स्त्री के लिये कैसा देवता है।

पति सम जग में नहिं कोउ देव।

हम अबलन कहँ पति ही को बल प्रानपतिहि कहँ सेव॥
पतिप्राना नारी सों सुख धन कोउ जग में नहिं लेव।

पति बिनु नारी जीवन बिरथा ज्यों बारी बिनु नेव॥


बनदेवता--भगवान तुमारी सी पतिप्राणा भार्या सब को दे।

नारि सम जग में नहिं सुखमूल।

पतिबरता नारी मिलबे सम सुख नहिं पायो भूल॥
पति हि उधारे तीन पुरुष संग एक सुलच्छन नारि।

ऐसी प्राणपियारी ऊपर दीजै सब जग बारि॥


बनदेवी--आहा! नाथ! प्रेम सा अमूल्य रत्न संसार में नहीं है, देखो उसके उदय होते ही तुम्हारे कमल नेत्रों में मुक्ता फूल उठे। (मुँह फेर कर आँसू पोछती है, दोनों गले लगकर प्रेमाश्रु से अभिसिंचित होते हैं)