पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६९३

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छठा दृश्य

(मालती कुंज में शिला पर सावित्री और सत्यवान बैठे हैं)


सावित्री--तुम मेरे बहुत जतन के प्यारे।
तुव दरसन-लालसा पियारे कह कह कठिन नेम नहिं धारे॥
तुमहि प्रानधन जीवनसर्वस तुमही मम नैनन के तारे।
अब तौ नेकहुँ नाहिं टरौं पिय दुष्ट काल हू जो पै टारे।


सत्यवान--(मुखचुंबन करके) "तुव मुख चंद चकोर ये नैना।
पलक न लगत पलहु बिनु देखे भूलि जात गति पलहु लगै ना॥
अरबरात मिलिबे को निसिदिन मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलैना।
'भगवत रसिक'रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना॥"


दोनों--"प्रीति की रीति ही अति न्यारी।
लोक बेद सब सों कछु उलटी केवल प्रेमिन प्यारी॥
को जानै समझे को याको बिरली समझनहारी।
'हरीचन्द' अनुभव ही लहिए जामैं गिरवरधारी॥"


सत्यवान--प्यारी ! जब से तुम यहाँ पधारी तब से इस बन की शोभा ही दूसरी हो गई। आहा ! वह सुंदर राज्य प्रासाद और वे सब सुख के सामान जैसे सुखद थे उन से कहीं बढ़कर यह बन तुम्हारे कारण सुखप्रद है।


सावित्री--नाथ ! यह सब केवल तुम्हारा ही प्रभाव है। भला