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सतीप्रताप


मेरे भाग्य कहाँ जो मैं इस शरीर से तुम्हारी सेवा कर सकूँ पर न जाने किस देवता की कृपा से आज मैं तुम्हारे चरणों की दासी हुई, जिसके लिये लोग जनम जनम पच मरते हैं पर नहीं पाते। (आँखों में आँसू भर आते हैं)


सत्यवान--(गाढ़ आलिंगन करके) मेरी प्राण ! धन्य हमारे भाग्य जो तुम सी नारी हमने पाई। हमारे ऐसा बड़-भागी कोई स्वर्ग में भी न होगा। आहा !

हम सम जग मैं नहिं कोउ आन।

जा घर तुम सी नारि बिराजत ताके कौन समान॥
रूपरासि गुनरासि छबीली प्रेममयी मम जीवन-प्रान।

सकल संपदा बारूँ तुम पर प्यारी चतुर सुजान॥


सावित्री--प्राणनाथ ! क्यों मुझे लजाते हौ? मैं कदापि तुम्हारे योग्य नहीं। न जाने मेरे कौन से पुरबले पुन्य उदय हुए जो आपकी श्री चरणसेवा मेरे बाँट पड़ी। प्राणवल्लभ ! आपके गुणों का अनुभव जो मेरे चित्त को है उसे क्या यह बिचारी चमड़े की जीभ कभी भी जान सकती है ?


(प्रेमाश्रु आँखो में भर आते हैं)


सत्यवान--चलो रहने दो शिष्टाचार की बातें बहुत हो चुकीं। (ऊपर देख कर) ओहो! हम लोगों की बातों में इतना दिन चढ़ आया, पिता के अग्निहोत्र का समय हो गया