पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६९७

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सातवाँ दृश्य

( स्थान-घोर अरण्य। एक बड़े वृक्ष के नीचे सत्यवान मूर्छित सा पड़ा है और सावित्री उसका सिर अपने गोद में रक्खे अत्यंत व्याकुल बैठी है )

सावित्री---प्राणनाथ, जीवनधन, यह तुम्हे क्या हुआ? अरे अभी तो अच्छे विच्छे हम से बिदा होकर आये थे, अभी यह क्या दशा हो गई? हाय! यह गुलाब की पत्ती सा कोमल सुंदर मुख इतनी ही देर में ऐसा श्याम क्यो हो गया? अरे कोई दौड़ो रे--किसी वैद्य गुणी को बुलायो--( कुछ ठहर कर ) हाय! यहाँ कौन बैठा है जो मेरी इस विपत्ति में सहायता करेगा। हे दीनानाथ, अशरण-शरण! मुझे सिवाय तेरे और कोई अवलंब इस समय नहीं है। देखो तुम्हारे रहते मैं अबला इस घोर बन में अनाथों की तरह लूटी जाती हूँ। मुझे बचाओ।

सत्यवान---( कुछ सचेत होकर सावित्री की ओर देख कर ) प्रिये! तुम यहाँ कहाँ? मैं तो चला, मेरे कारण तुम्हें बड़े बड़े कष्ट उठाने पड़े, मुझे क्षमा करना और कभी कभी इस अभागे का भी स्मरण करना। ( कुछ रुक कर ) पिता से मेरी बहुत तरह से प्रणाम कहना और कहना कि मुझे