पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६९८

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सतीप्रताप

इस बात का बड़ा खेद है कि मैं आपकी सेवा बहुत कम करने पाया, मेरे अपराधों को आप क्षमा करें। मातृ-चरण में भी मेरा प्रणाम पहुँचाना। मुझे बड़ा ही दुःख है कि मैं अंत समय उनके दर्शन न कर सका। तुम अपने सास ससुर की सेवा बड़ी सावधानता से करना, भगवान के चरणों में सदा स्नेह रखना ( घबड़ाहट नाट्य कर के ) उह! अब चले, कंठ सूखा जाता है। बड़ी प्यास लगी है पानी---पानी---

सावित्री---( घबड़ाकर ) हाय! यहाँ पात्र भी नहीं कि पानी लाऊँ। ( दौड़ कर अंचल में भिंगा कर पास के तालाब से पानी लाकर सत्यवान के मुँह में निचोड़ती है )

सत्यवान---( कुछ स्थिर हो जाता है) धन्य देवी, धन्य। इस समय तुम ने मानों अमृत के बूंद चुभा दिये।

सावित्री---इन सब बातों को रहने दीजिये, यह बतलाइए अभी तो आप अच्छे चंगे थे अभी यहाँ क्या हो गया?

सत्यवान---( मुमुर्षु अवस्था में ) मैं---तुम---से---विदा होकर लकड़ी चुनने आया। इस झाड़ी में घुस कर उस सूखे वृक्ष की लकड़ी ज्यो ही काटी मुझे जान पड़ा मानों मेरा सिर एक दम उड़ा जाता है। ऐसी भारी वेदना मेरे सिर में अकस्मात उठी कि मैं किसी तरह सम्हल न सका, किसी किसी तरह झाड़ी से निकला, यहाँ तक