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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७१

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आज्ञा दई है कि, प्यारे सो कही दै चन्द्रावली की कुंज में सुखेन पधारौ'। न जाने किस आदर्श को सामने रखकर इस नाटिका के पात्रों का चरित्र-चित्रण किया गया है।" धन्य है, बलिहारी है, इस समझ की, सत्य ही 'जो अधिकारी नहीं है। उनके समझ में न आवेगा।' हिन्दी-साहित्य की ब्रजभाषा की कविता का साधारण ज्ञाता भी यह जानता होगा कि ब्रजलीला की "स्वामिनी" श्री राधिका जी हैं। वहाँ किसी की माता, दादी या रानी स्वामिनी नहीं कहलाती थीं। ब्रज की गोपियों के लिए श्रीकृष्ण स्वामी तथा श्री राधा ही स्वामिनी थीं। चंद्रावली जी की माता अवश्य वृद्धा रही होगी और श्रीकृष्ण जी को 'प्यारे सों' शब्दो में सम्बोधित करना, जिसे वे स्यात् अपना दामाद बना रही थीं, कहीं अधिक विचित्र बतलाया जा सकता था, परन्तु समालोचक महोदय की दृष्टि उधर नहीं पड़ी, नहीं तो इसे भी अवश्य लिखते। जिसने यह सन्देश कहा था उसी की बात कुछ ही पंक्ति बाद आप पढ़ लेते तो इस शब्द से किससे प्रयोजन है, यह स्पष्ट हो जाता। वह कहती है 'तो मैं और स्वामिनी में कुछ भेद नहीं है, ताहू में तू रस की पोषक ठैरी।' और तीसरे अंक में दोनों को मिलाने का जो उपाय निर्धारित हुआ था उसमें प्रिया जी अर्थात् श्रीराधिका जी से आज्ञा प्राप्त करने की और 'याके घरकेन सों याकी सफाई करावै' की दो बातें तै हुई थीं। वही आज्ञा समय पर मिली, क्योंकि यदि यह आज्ञा पहिले ही मिली होती तो श्रीकृष्ण जी को योगिनी के छद्मवेश में आने की आवश्यकता न पड़ती।

इस नाटिका की कविताएँ विशेष रूप से हृदय-ग्राहिणी हैं।