पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७१६

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जो कुछ मंगल, शुभ, सौभाग्य, धन-धान्य, स्वस्थता तथा संतान-वृद्धि है वह सब भगवान की कृपा तथा ब्राह्मण के आशी-र्वाद से तुम्हारा हो।

पृ० ६३---अपनी जाति आप ग्रहण करने वाले, प्रसिद्ध क्राधी ब्राह्मण, वशिष्ठ के दर्पवान पुत्र रूपी जंगल के लिए अग्नि रूप, दूसरी सृष्टि बनाने से भयभीत संसार के लिये यम समान और चांडाल त्रिशंकु के पुरोहित मुझ कौशिक को नहीं पहिचानता।

अकालादि समय में निकृष्ट वृत्ति धारण करने वाले, राजाओ का दान न लेने वाले, आड़ी ( वशिष्ठ ) तथा बक ( विश्वामित्र ) के युद्ध से संसार को कंपित करने वाले और तेज़ तथा तप के कोष आप को कौन नहीं जानता?

पृ० ६८---जिसकी कहीं भी गति नहीं है उसकी काशी में गति हो जाती है।

पृ० ७३---जिनका भोजन, वस्त्र और निवास ठीक ठीक नहीं है उनको काशी भी मगध है और गंगा भी तपाने वाली है।

पृ० ८४---हे ब्राह्मण, तुम्हारे इस तप, व्रत, ज्ञान और पठन- पाठन को धिक्कार है कि तुमने हरिश्चंद्र को इस दशा में ला डाला।

पृ० ८८---तपस्वी लोग तो आप ही दास होते हैं।