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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७२३

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संबू भट्ट--हाँ हाँ दीक्षित जी वहीं खतम करिए मैं आज कल नहीं पीता।

गोपाल, माधव---क्यो भट्ट जी, बस रहने दो, ये नखरे कहाँ सीखे? इसे पीयो, व्यर्थ यह ठंढी होती है।

चंबू भट्ट---नहीं भाई मैं सत्य कहता हूँ, मुझको बरदाश्त नहीं होती। तुम लोगों को तो यह नखरा जान पड़ता है पर ये सब प्रायः काशी के ही हैं और आप लोगों के समान परम प्रियतम सफेद करकराता डुपट्टा ओढ़ने वाली अनाथ बाला ने ही सिखलाए होगे।

महाश---क्यों गुरु दीक्षित जी अब पान जमना चाहिए।

बुभु०---हॉ भाई, वह बँटा है ले आओ और लगायो तब एक दो चार।

महाश----दीक्षित जी, ठोक्या के कमरे में १५ ब्राह्मण भेजिए। दस बजे पत्तल परोसी जायगी और आज रात को बसन्त पूजा में १० ब्राह्मण जल्दी भेज देना, क्योंकि उसके बाद दूसरे दल के ब्राह्मण आवेंगे।

बुभु०---( हिन्दी )

माधव०---( हिन्दी )

गोपाल---( हिन्दी )