पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७४

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तीव्र वेदना से उत्पन्न तपन की जो नाप बतलायी जा रही है, उसी के गोरखधंधे में उलझ जाते हैं। तात्पर्य इतना ही है कि ऐसे वर्णन से श्रोता या पाठक की दृष्टि, विरही या विरहिणी पर न रहकर कवि की अत्युक्ति-पूर्ण असम्भाव्य बातों के घटाटोप में बन्द हो जाती है। यदि यही अत्युक्तियाँ सम्भाव्य हों, ऐसे वर्णनों का आधार सत्य और स्वाभाधिक हो तो पाठकों के हृदय में उनके चित्र तुरन्त खचित हो जायेंगे और विरही-विरहिणी के प्रति उनकी समवेदना तुरन्त आकृष्ट हो जायगी। आह रूपी नागिन ने उड़कर आकाश को काट लिया जिससे वह नीला हो गया, ऐसे वर्णन में आधार आकाश का नीला होना सत्य है, पर उसका जो कारण बतलाया गया है वह असत्य है। इस प्रकार के वर्णन में सत्य आधारों का विरह के कारण वैसा होना दिखलाने के लिए ऐसे हेतु का आरोपण किया जाता है, जिससे वैसा होना सम्भव हो। सर्प के दंशन से विष फैलने पर मनुष्य नीला हो जाता है, इसलिए आहरूपी सर्प के दंशन से अाकाश का नीला होना कहना अनौचित्य की सीमा तक नहीं पहुँचा। कल्पना की उड़ान इसमें भी ऊँची उड़ी है परन्तु फिर भी कुछ गाम्भीर्य है, कोरा मजाक नहीं।

विप्रलम्भ श्रृंगार के चार भेद होते हैं, पूर्वानुराग, मान, और करुण। समागम होने के पहिले केवल दर्शन, गुण-श्रवण आदि से प्रेम अंकुरित होने पर मिलन तक का विरह पूर्वानुराग के अंतर्गत है। प्रेमियों के एक दूसरे से कारणवश रुष्ट होने पर उत्पन्न वियोग मान कहलायेगा। जब दो में से एक कहीं विदेश चले जायँ तब प्रवास-विप्रलम्भ होता है। प्राचीन