आचार्यों ने प्रेमियों में कितना अंतर पड़ने पर ऐसे वियोग को प्रवास विप्रलम्भ कहना चाहिए, इस पर विचार नहीं किया है, परन्तु एक आधुनिक आचार्य एक स्थान पर लिखते हैं कि 'वन में सीता का वियोग चारपाई पर करवटें बदलवाने वाला प्रेम नहीं है--चार कदम पर मथुरा गए हुए गोपाल के लिए गोपियों को बैठे बैठे रुलाने वाला वियोग नहीं है, झाड़ियों में थोड़ी देर के लिए छिपे हुए कृष्ण के निमित्त राधा की आँखों से आँसुओं की नदी बहाने वाला वियोग नहीं है, यह राम को निर्जन बनो और पहाड़ों में घुमानेवाला, सेना एकत्र कराने वाला, पृथ्वी का भार उतरवाने वाला वियोग है इस वियोग की गम्भीरता के सामने सूरदास द्वारा अंकित वियोग अतिशयोक्ति-पूर्ण होने पर भी बालक्रीड़ा सा लगता है।' इस उद्धरण में पहिले यही नहीं पता लगता कि श्रीरामचन्द्र से सबल पुरुष को राधा-गोपी आदि अबलाओ से समता क्यों की गई है! क्या ये अबलाएँ रणचंडी बनकर मथुरा या लाखो 'चार कदम' दूर द्वारिका पर चढ़ जातीं और कृष्ण को पकड़ लातीं! मान-विरह तो चार कदम क्या एक कदम की दूरी न रहने पर भी हो सकता है। जब रावण के समान कोई नृशंस पुरुष किसी की प्रणयिनी उड़ा ले जाय तभी तो वह विरही होते हुए भी वीर पुरुष के समान उससे अपने प्रणयिनी को छीन लाने का प्रयत्न करेगा। परन्तु जब दोनों प्रेमी वन्य प्रदेश में घूमते-फिरते किसी प्रकार एक दूसरे से कुछ मान होने के कारण छूट गए उस समय, प्रेमी चाहे झाड़ी में छिपा हुअा तमाशा ही देख रहा हो, प्रणयिनी अबला अवश्य ही मान, रोष, विरह दुःख आदि के कारण रो
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