पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६९ )

बैठेगी। इसमें रत्ती भर भी अस्वाभाविकता नहीं है। कुछ समालोचक जब एक कवि की आलोचना करते रहते हैं तो अन्य कवियो पर कुछ फबतियाँ कसते जाते हैं। यह एक प्रथा-सी हो गई है।

करुण-विप्रलम्भ नायक तथा नायिका दो में से एक के मरण- पश्चात् दूसरे के शोक को कहा जा सकता है परन्तु उसी अवस्था तक जब तक इस बात की आशा होती है कि वह पुनः जीवित हो उठेंगे। सत्यवान की मृत्यु पर सावित्री का रुदन इसी प्रकार का है क्योकि उसे दृढ़ आशा थी कि उसका पति पुनः जी उठेगा। यदि जी उठने की आशा ही न रहे तो करुण-विप्रलम्भ न रहकर करुण रस हो जायगा।

श्री 'चन्द्रावली नाटिका' हिन्दी-साहित्य की एक अमूल्य निधि है और इसकी सभी विशेषता एक मात्र 'प्रेम' शब्द में भरी पड़ी है। इसका विरह-वर्णन इतना स्वाभाधिक, इतना हृदय ग्राही और समवेदना-उत्पादक है कि इसको पाठक या श्रोता-गण पढ़-सुनकर तन्मय हो जाते हैं। समस्त नाटिका में श्रृंगार-रस का वियोग पक्ष ही प्रधान है, केवल अंत में मिलन होता है। 'प्रेमियो के मंडल को पवित्र करने वाली' चन्द्रावली में श्रीकृष्ण की बाल सुलभ चपलता, सौंदर्य तथा गुण सुनने से पूर्वानुराग उत्पन्न होता है। आस-पास के गाँव में रहने से देखा-देखी भी होती है और यह सब व्यापार प्रेम रूप में परिणत हो जाता है। 'वह सुन्दर रूप विलोकि सखी मन हाथ ते मेरे भग्यो सो भग्यो।' इस प्रकार प्रेम का आधिक्य हो जाने पर उसे छिपाना कठिन हो जाता है। सखियाँ प्रश्न करती हैं; हठ