पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७८

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मन मॉहि जो तोरन ही की हुती,
अपनाइ के क्यो बदनाम कियो॥

विरह से उद्वेग बढ़ा, उन्माद के लक्षण दिखलाई पड़ने लगे और जड़ तथा चेतन का भेद न रह गया। 'राजा चन्द्रभानु की बेटी चंद्रावली' पक्षियों पर बिगड़ उठती है, कहती है---"क्यों रे मोर! इस समय नहीं बोलते? नहीं तो रात को बोल-बोल के प्राण खाए जाते थे। कहो वह कहाँ छिपा है?

अहो अहो बन के रूख कहूँ देख्यौ पिय प्यारो।
मेरो हाथ छुड़ाइ कहौ वह कितै सिधारो॥
अहो कदंब अहो अंब-निंब अहो बकुल तमाला।
तुम देख्यौ कहुँ मनमोहन सुंदर नँदलाला॥
अहो कुंज-बनलता बिरछ तृन पूछत तोसों।
तुम देखे कहुँ श्याम मनोहर कहहु न मोसों॥
अहो जमुन अहो खग मृग हो अहो गोबरधनगिरि।
तुम देखे कहुँ प्रान-पियारे मनमोहन हरि॥

कैसी उन्मत्त दशा है, ये पेड़ पक्षी भी अपने साथ सहानुभूति दिखलाते हुए ज्ञात होते हैं पर बेचारो का कुछ वश चलता नहीं। विरहिणी उनसे बड़े दुलार के साथ, आदर के साथ पूछती है पर वे निरुत्तर है। उन्मादिनी के कान में किसी ने वर्षा का शब्द पहुँचा दिया। बस, वह अपने घनस्याम आनंदघन का स्वप्न देखने लगी। वह कहती है---

बलि सॉवरी सूरत मोहिनी मूरत,
आँखिन को कबौं आइ दिखाइये।