पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७२ )

चातक सी मरै प्यासी परी,
इन्हें पानिप रूप-सुधा कबौं प्याइये॥
पीत परै बिजुरी से कबौं,
'हरिचंद जू' धाइ इतै चमकाइये।
इतहू कबौं आइकै अानंद के घन,
नेह को मेह पिया बरसाइये॥

सच्चे प्रेमी चातक-स्वरूप हैं, उनकी प्यास, हृदय-तृष्णा, उन्हीं के प्रेम-पात्र के मिलने से तृप्त होती है, उससे हज़ार गुना बढ़कर सौंदर्यादि गुणों से युक्ता पात्र को देखने से नहीं होती। ऐसी विरहिणी को दिन होता है तो शोक, संध्या होती है तब भी शोक। चन्द्र की सुधामयी किरणो तथा सूर्य की उत्तप्त रश्मियाँ उनके लिए समान हैं। चन्द्रोदय होने पर पहले उसमें वह अपने प्रिय 'गोप-कुल-कुमुद-निसाकर उदैभयो' मानती हैं और जब वह भ्रांति मिटती है, तब उसे सूर्य समझ कहती हैं---

निसि आजहूँ की गई हाय बिहाय
पिया-बिनु कैसे न जीव गयो।
हतभागिनि आँखिन कों नित के,
दुख देखिबे कों फिर भोर भयो॥

जब चंद्रमा बादल के आ-जाने से छिप जाता है, तब एकाएक उसे रात्रि का पता चलता है। वह घबराकर कहती है---"प्यारे देखो, जो जो तुम्हारे मिलने में सुहावने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो गए। हा! जो बन आँखों से देखने में कैसा भला दिखाता था, वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है। देखो सब कुछ है एक तुम्ही नहीं हो। प्यारे! छोड़ के कहाँ