का प्रभाव सा है और श्रृंगार तथा करुण रस का संसर्ग भी नहीं होने पाया है। यद्यपि अंतिम अंक में चंदनदास की स्त्री रंगमंच पर आती है, पर वह भी नीरस, कठोर कर्तव्य-पाल-नोन्मुखी तथा स्वार्थत्यागिनी के रूप में प्रदर्शित है। उसके पास भी करुण रस नहीं फटकने पाया, तब श्रृंङ्गार की कहाँ पूछ होती। नाटककार ने लिख ही दिया है कि 'कलत्रमितरे सम्पतसु चापत्सुच', ( अंक १ श्लो० १५ ) अर्थात् राजनीतिज्ञ के लिए स्त्रियाँ सुख दुःख दोनों में भार सी प्रतीत होती हैं। इस प्रकार के राजनीति-धुरंधर नाटककार के लिखे गए राजनीति-विषयक नाटक में माधुर्य या सौंदर्य का खोजना ही व्यर्थ है।
मुद्राराक्षस नाटक सात अंको में है और नाट्यकला के सभी लक्षण इसमें पूर्ण रूप से वर्तमान हैं। इस नाटक में वीर रस प्रधान है। यद्यपि आश्चर्य की मात्रा भी प्रचुर रूप से वर्तमान है पर कर्मवीरत्व या उद्योग ही का प्राधान्य सारे नाटक में है। प्रधान नायक चंद्रगुप्त धीरोदात्त है। पात्रों का विवेचन आगे दिया जायगा। प्रथम अंक में चाणक्य का मौर्य-राज्य की स्थिरता के लिए राक्षस को चंद्रगुप्त का मंत्री बनाने को दृढ़ इच्छा प्रकट करना बीज है। राक्षस की मोहर की प्राप्ति और शकटदास से पत्र लिखाकर मोहर करना तथा उसे मलयकेतु को कपट से दिखलाना विंदु है। इसी विंदु तथा कार्य से नाटक का नामकरण हुआ है। विराधगुप्त का राक्षस से उसके प्रयत्नों का निष्फल होने का संदेश कहना पताका है। चाणक्य और चंद्रगुप्त के मिथ्या कलह का संवाद राक्षस के पास लाना प्रकरी है। राक्षस का मंत्रित्व ग्रहण करना कार्य है।