भूमिका
१––संस्कृत नाटय-शास्त्र तथा नाटकों का
संक्षिप्त इतिहास
नाटकों की व्युत्पत्ति के विषय में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में लिखा है कि त्रेता युग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्मा के पास जाकर उनकी बहुत स्तुति की और प्रार्थना की कि वे मनोरंजन की कुछ ऐसी वस्तु का सृजन कर दें, जिससे नेत्र तथा कर्ण दोनो को साथ साथ आनंद प्राप्त हो। इस पर ब्रह्मा जी ने प्रसन्न होकर चारों वेदो से कुछ कुछ अंश लेकर नाट्यवेद की रचना की। यह अब प्राप्त नहीं है और यह अतीव प्राचीन काल के गाथाओं का संग्रह मात्र होता, जिसका केवल उल्लेख नाट्यशास्त्र में हुआ है। ऋग्वेद में दो तथा तीन व्यक्तियों के अनेक कथोपकथन आदि हैं तथा शृंगार किए हुए कुमारियों का नृत्य कर प्रेमियों को आकर्षित करने का उल्लेख है। सामवेद से ज्ञात होता है कि गानविद्या भी उस समय तक पूर्णता को प्राप्त हो चुकी थी और अथर्ववेद में वादन के साथ गायन तथा नृत्य का उल्लेख मिलता है। तात्पर्य यह कि वैदिक युग में नाटक ही के समान कुछ दृश्य दिखलाए जाते थे, जो अवश्य ही धार्मिक रूप में रहे होंगे। पौराणिक-काल की रचनाओं में 'नट-नर्तकाः' आदि शब्द मिलते हैं, तथा हरिवंश पुराण में