पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१०

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रामायण के पात्रों को लेकर अभिनय करने का उल्लेख है। पर नट शब्द का अभिनेता अर्थ न लेकर तथा हरिवंश का समय निश्चित न मानकर विद्वान गण नाटक का अस्तित्व उस काल से नहीं लेते। साथ ही यूरोपीय विद्वान पुराणों के कथा बाँचने को नाटक का पूर्व रूप मानते हैं पर इन पुराणों की कथाएँ प्राचीन काल से अब तक होती आ रही है, जिसमें व्यास जी श्लोकों को पढ़ते तथा अर्थ बतलाते हैं और सैकड़ों श्रोता ध्यानपूर्वक बैठकर, जिनमें बगुला भगत अधिक होते हैं, उसे सुनते हैं। नट शब्द से अभिनेता का अर्थ लेते हुए भी साधारणतः अब तक लोग नट से उस जाति के लोगों को समझते हैं, जो नगरों में कभी कभी ढोल बजाकर 'हाय पैसा हाय पैसा' गाते हुए रस्सियों पर नाचते हैं। इस प्रकार पौराणिक काल में भी वैदिक काल से नाटकों की विशेष उन्नति नहीं हुई मानी जाती है।

इस काल के अनंतर वैयाकरणी पाणिनि ने शिलालिन् तथा कृशाश्व के नटसूत्रों का उल्लेख किया है, जिसका समय तीसरी शताब्दि पूर्वेसा काल माना जाता है। इसके अनंतर पतंजलि के महाभाष्य में, जिसका समय पाणिनि के डेढ़ सौ वर्ष बाद माना जाता है, कंसवध किया जाता है या बलि बंधन होता है ऐसे वाक्यो से नाटक के अस्तित्व का कुछ पता लगाया गया है। इसी प्रकार इस ग्रंथ का खूब अन्वेषण कर उक्त विद्वानों ने नाटक के सभी अंग प्रत्यंग का अनुसंधान पाकर निश्चय किया है कि उस समय तक नाटक अपने प्रारंभिक रूप में आ चुका था।