पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/९५

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नहीं है। प्रधान पात्रों पर जो कटाक्ष है उस पर कुछ लिखने के पहले इस गौण बात पर विचार करना उचित है। यदि कोई दस पाँच शस्त्रधारी पुरुष साथ लेकर किसी के गृह पर आक्रमण करता है तो कहा जाता है कि वह डॉका डालता है पर जब कोई लाख दो लाख सेना लेकर किसी दूसरे के राज्य पर आक्रमण करता है तो वह जगद्विजयी, दिग्विजयी या चक्रवर्ती की उपाधियों से विभूषित किया जाता है। एक में केवल स्वार्थ है तो दूसरे में स्वार्थ के साथ, यशोलिप्सा की मात्रा भी प्रचुरता से विद्यमान है। पर इस नाटक के इन दोनों पात्रो में यह दिखलाया जा चुका है कि स्वार्थ का लेश भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि व्यक्तिगत दोष तथा समाज के लिए किए गए दोष एक ही बॉट से नहीं तौले जाते।

नन्द-वंश की राज्यलक्ष्मी चन्द्रगुप्त के वशीभूत होकर भी अस्थिर हो रही थी। चाणक्य ने यह विचार कर कि साम्राज्य के दो भाग होने से पड़ोस में दो प्रबल साम्राज्यों का शान्तिपूर्वक रहना असंभव है और आपस के झगड़े में सहस्रों सैनिकों का रक्तपात होगा, इससे वह बँटवारे के विरुद्ध हो गया। इधर राक्षस ने बदला लेने के लिये चन्द्रगुप्त पर विषकन्या का प्रयोग किया। चाणक्य ने अच्छा अवसर पाकर उस विषकन्या का पर्वतक पर प्रयोग करा दिया, जिससे बँटवारे का प्रश्न ही मिट गया। इसके अनन्तर जब राक्षस पर्वतक के पुत्र मलयकेतु से मिलकर राज्य में षड्यन्त्र रचने लगा और उसने अनेक राजाओं को सहायतार्थ उभाड़ा तब चाणक्य को भविष्य में होने वाले युद्ध की आशङ्का हुई। चाणक्य ने