पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/९४

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पर्वतक के गहनों को धोखे से राक्षस के हाथ बेचना। तृतीय अंक---( ७ ) चंद्रगुप्त और चाणक्य का झूठा कलह। चतुर्थ अंक---( ८ ) मलयकेतु का राक्षस पर शंका करना और चाणक्य के चर भागुरायण पर विश्वास। पंचम अक---( ९ ) मलयकेतु का राक्षस से कलह कर पॉच सहायक राजाओ को मरवा डालना ( १० ) मलयकेतु का युद्ध करने जाना तथा कैद होना। छठा अंक---( ११ ) चंदनदास के रक्षार्थ चन्द्रगुप्त की अधीनता मानने के लिए चाणक्य के चर का चतुरता से राक्षस को वाध्य करना। सातवॉ अंक---( १२ ) अंत में राक्षस का मंत्रित्व ग्रहण करना।

आरम्भ में दर्शकों को सभी बातों का पूरा पूरा ज्ञान कराते हुए जो उत्सुकता उत्पन्न की गई है, वह प्रायः अन्त तक बढ़ती गई है और इसके दृश्य इतने सजीव और स्वाभाविक हैं कि कहीं जी नहीं ऊबता।

कहा जाता है कि इस नाटक से कोई उत्तम शिक्षा नहीं मिलती और इसके दोनों प्रधान पात्र अवसर पड़ने पर मित्रों तथा शत्रुओं को मार्ग से हटाने के लिए किसी उपाय को घृणित नहीं समझते थे। अस्तु, इसमें आदर्श सामने रखकर दैव पर भरोसा करने वालों को उद्योग या कर्मवीरत्व को उचित शिक्षा दी गई है। कर्म का ही फल दैव या निज कर्म है। कर्म में जो कुछ लिखा जाता है वह पुस्तकाकार किसी के साथ संसार में नहीं आता पर जो कुछ कर्म किया जाता है वही पुस्तक स्वरूप में जाते समय यहीं छोड़ जाना पड़ता है। कर्मवीरत्व को यदि कुशिक्षा समझा जाय तो इस पर मेरा कुछ कथन