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कमलाकरान्हिक, निर्णयसिंधु (आचारंमाधवादि ग्रंथों में सैकड़ों वाक्य हैं, देख लो)। पाँचवें शास्त्रों में शिवमंदिर और भैरवादिकों के मंदिर को नगर के बाहर बनाना लिखा है। छठवें वे लोग कहते हैं कि शैवबीजमंत्र से दीक्षित और शिव को छोड़ कर और देवता को न माननेवाले ऐसे शुद्ध शैव भारतवर्ष में बहुत ही थोड़े हैं। या तो शिवोपासक स्मार्त्त हैं या शाक्त हैं। शाक्त भी शिव को पार्वती के पति समझकर विशेष आदर देते हैं, कुछ सर्वेश्वर समझ कर नहीं। जंगमादिक दक्षिण में जो दीक्षित शैव हैं वे बहुत ही थोड़े हैं। शाक्त तो जो दीक्षित होते हैं वे प्रायः कौलही हो जाते हैं। सौर गाणपत्य की तो कुछ गिनती ही नहीं। किन्तु वैष्णवों में मध्य और रामानुज को छोड़कर और इन में भी जो निरे आग्रही हैं वे ही तो साधारण स्मार्तों से कुछ भिन्न हैं, नहीं तो दीक्षित वैष्णव भी साधारण जनसमाज से कुछ भिन्न नहीं और एक प्रकार के अदीक्षित वैष्णव तो सभी हैं। सातवीं युक्ति इन लोगों की यह है कि जो अनार्यलोग प्राचीन काल में भारतवर्ष में रहते थे और जिन को आर्यलोगों ने जीता था वही शिल्पविद्या नहीं जानते थे और इसी हेतु लिंग, ढोंका सिद्धपीठ इत्यादि पूजा उन्हीं लोगों की है जो अनार्य हैं। आठवें शिव, काली, भैरव इत्यादि के वस्त्र, निवास, आभूषण आदिक सभी आर्यों से भिन्न हैं। स्मशान में वास, अस्थि की माला आदि जैसी इन लोगों की वेषभूषा शास्त्रों में लिखी है वह आर्योचित नहीं है। इसी कारण शास्त्रों में शिव का, भृगु और दक्ष आदि का विवाद कई स्थल पर लिखा है और रुद्रभाग इसी हेतु यज्ञ के बाहर है। यद्यपि ये पूर्वोक्त युक्तियाँ योरोपीय विद्वानों की हैं, हमलोगों से कोई संबंध नहीं किन्तु इस विषय में बाहरवाले क्या कहते हैं, केवल यह दिखलाने को यहाँ लिखी गई है।

पाश्चिमात्य विद्वानों का मत है कि आर्य लोग (Aryans) जब मध्य एशिया (Central Asia) में थे तभी से लोग विष्णु का नाम जानते हैं। जोरौस्ट्रियन (Zorastrian) ग्रंथ जो ईरानी और आर्य शाखाओं के भिन्न होने के पूर्व के लिखे हैं उन में भी विष्णु का वर्णन है। वेदों के आरंभकाल से पुराणों के समय तक तो विष्णुमहिमा आर्यग्रंथों में पूर्ण है। वरंच तंत्र और आधुनिक भाषा ग्रंथों में उसी भाँति एकछत्र विष्णुमहिमा का राज्य है।

पंडितवर बाबू राजेन्द्रलाल मित्र ने वैष्णवता के काल को पाँच भाग में विभक्त किया है। यथा १ वेदों के आदि समय की वैष्णवता, २ ब्राहमण के समय की वैष्णवता, ३ पाणिनि के और इतिहासों के समय की वैष्णवता, ४ पुराणों के समय की वैष्णवता, ५ आधुनिक समय की वैष्णवता।

वेदों के आदि समय से विष्णु की ईश्वरता कही गई है। ऋग्वेद संहिता में विष्णु की बहुत सी स्तुति है। विष्णु को किसी विशेष स्थान का नायक या किसी विशेष तत्व वा कर्म का स्वामी नहीं कहा है, वरंच सर्वेश्वर की भाँति स्तुति किया है। यथा विष्णु पृथ्वी के सातों तहों पर फैला है। विष्णु ने जगत् को अपने तीन घर के भीतर किया। जगत उसी के रज में लिपटा है। विष्णु के कर्मों को देखो जो कि इंद्र का सखा है। ऋषियो! विष्णु के ऊँचे पद को देखो, जो एक आँख की भाँति आकाश में स्थिर है । पंड़ितों! स्तुति गाकर विष्णु के ऊँचे पद को खोजो। इत्यादि। ब्राह्‌मणों ने इन्हीं मंत्रों का बड़ा विस्तार किया है और अब तक यज्ञ, होम, श्राद्ध आदि सभी कर्मों में ये मंत्र पढ़े जाते हैं। ऐसे ही और स्थानों में विष्णु को जगत् का रक्षक, स्वर्ग और पृथ्वी का बनानेवाला, सूर्य और अँधेरे का उत्पन्न करनेवाला इत्यादि लिखा है। इन मंत्रों में विष्णु के विषय में रूप का परिचय इतना ही मिलता है कि उस ने अपने तीन पदों से जगत् को व्याप्त कर रखा है। यास्क ने निरुक्त में अपने से पूर्व के दो ऋषियों का मत इस के अर्थ में लिखा है। यथा शाक्यमुनि लिखते हैं कि ईश्वर का पृथ्वी पर रूप अग्नि है, घन में विद्युत् है और आकाश में सूर्य है। सूर्य की पूजा किसी समय समस्त पृथ्वी में होती थी यह अनुमान होता है। सब भाषाओं में अद्यापि यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'उठते हुए सूर्य को सब पूजता है।' (अरुणभाव सर्य के उदय, मध्य और अस्त की अवस्था को तीन पद मानते हैं।) दुर्गाचार्य अपनी टीका में उसी मत को पुष्ट करते हैं। सायणाचार्य विष्णु के बावन-अवतार पर इस मंत्र को लगाते हैं। किन्तु यज्ञ और आदित्य ही विष्णु हैं, इस बात को बहुत लोगों ने एक मत होकर माना है। अस्तु, विष्णु उस समय आदित्य ही को नामांतर से पुकारा है कि स्वयं विष्णु देवता आदित्य से भिन्न थे, इस का झगड़ा हम यहाँ नहीं करते। यहाँ यह सब लिखने से हमारा केवल यह आशय है कि अति प्राचीनकाल से विष्णु हमारे देवता है। अग्नि, वायु और सूर्य यह तीनों रूप विष्णु के हैं; इन्हीं से ब्रह्‌मा, शिव और विष्णु यह तीन मूर्तिमान् देव हुए हैं।

भारतेन्दु समग्र ९७२