पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ने राजकुँअर का सिर सूंघा और गोद में बैठाकर बोले 'पुत्र, तुम धन्य हो, आज तक तुम्हारे गुणों को अपने पुत्रों के मुख से सर्वदा सुनने से तुम्हें देखने की जो मेरी लालसा थी वह पूरी हुई, कहो हम भी तुम्हारा उपकार कर सकते हैं ।' कुँअर ने हाथ जोड़ कर कहा 'आप की कृपा से मेरे सब काम पूर्ण हैं, यदि वर दिया ही चाहते हैं तो इतना ही दीजिए कि मेरी मति सदा सुपथ पर चले । नागराज ने कहा 'तुम्हारी मति तो आप ही सुपथ पर है, कोई दूसरा वर माँगो ।' कुँअर नहीं माँगता था । गरज इसी संवाद में अवसर पाकर नाग नंदन बोले 'पितः इनको तो केवल एक मात्र दुःख है, जो मैंने आप से पूर्व कहा था' । कंवलानुज उसी समय महल में से मदालसा को ले आये और कुमार का हाथ पकड़ा दिया । उस समय कुमार को जो अलौकिक आनंद हुआ वह कौन वर्णन कर सकता है । यदि ऐसे ही मरा हुआ कोई प्राणप्रिय मित्र मिले तो उसका अनुभव किया जाय । पन्नगाधिपति ने पाताल में बड़ा उत्सव करके उन दोनों का फिर से पाणिग्रहण कराया । नाग नंदनों ने भी बड़ा आनंद किया और बड़े धूम धाम से कुँवर की दावतें हुई । सारा नाग लोक उमड़ पड़ा था और कुँवर को सब बधाई देते थे । कुंडला जो तप के बल से अब विद्याधरी हो गई थी, मदालसा के गले से लगी और बधाई देकर बोली 'बहिन, मेरे धन्य भाग हैं कि तुझे जीती जागती मली चंगी अपने पति के साथ देखती हूँ भगवान करे तू सीली सपूती ठंडी सुहागिन हो और धन जन पूत लक्ष्मी से सदा से सदा सुखी रहे' । अश्वतर का भाई कंबल और और भी बड़े बड़े नाग लोग इस उत्सव में आये थे और कुंवर से मिलकर सब प्रसन्न हुए । मणिधर मुकुट मणि अश्वतर ने कुवलायश्व को बहुत से मणि दिव्य वस्त्र चंदन इत्यादि देकर बड़ी प्रीति से धूम धाम से विदा किया और एक सज्जन मित्र उपकार करके अपने को कृतकृत्य समझा और कुँअर से बहुत तरह से विनती करके कहा कि सदा आना जाना बनाए रहना और पिता से हमारा बहुत प्रणाम कहना तुम्हारे स्नेह ने हमें बिना सैन्य जीत लिया है । नाग पत्नी नाग कन्याओं ने बहुत गहना कपड़ा दे उसका सिंगार किया और असीस देकर आँखों में आँसू भर के अपनी निज बेटी की भाँति विदा किया । कुँअर हँसी खुशी गाजे बाजे से उसी धूम धाम के साथ घर पहुँचा । माँ बाप का बहू बेटे को देख कर ऐसा कलेजा ठंडा हुआ जैसे किसी को खोई हुई संपत्ति मिले । राजा के सारे राज्य में आनंद फैल गया और घर घर बधाइयाँ होने लगी । कुंअर को राज का बोझ सुपुर्द करके राजा भी सुचित हुआ और कुँअर भी मदालसा के साथ सुख से काल बिताने लगा। काल पाकर राजा रानी परलोक को सिधारे और कुवलायश्व राजा और मदालसा रानी हुई । राज का प्रबंध कुवलायश्व ने बहुत अच्छा किया । प्रजा सब सुखी और चोर और शत्रु दुखी । कुवलायश्व मदालसा के साथ महल-बगीचे वन पहाड़ों और नदियों सुंदर स्थानों में सुख से काल बिताता था । समय से मदालसा को एक पुत्र हुआ । नाम करण के दिन राजा ने उसका सुबाहु नाम रक्खा तो मदालसा हँसी । राजा ने पूछा 'ऐसे अवसर में तुम हँसती क्यों हो ?' मदालसा ने कहा 'सुबाहु किसकी संज्ञा है इस जीव की कि इस देह की ? देह की कहो तो हो नहीं सकती क्योंकि यह मेरा हाथ, यह मेरा देह, यह सब लोग कहते हैं इससे देह का कोई दूसरा अभिमानी अलग मालूम होता है और जो कहो जीव की है तो जीव को तो बाहु हुई नहीं, वह तो निर्लेप है । फिर इसकी सुबाहु संज्ञा क्यों ? मेरे जान यह नामकरण इसका व्यर्थ है ।' राजा को ऐसे नामकरण के आनंद के अवसर में उसका यह ज्ञान छाँटना जरा बुरा मालूम हुआ पर चुप कर रहा । मदालसा जब बालक को खिलाने लगती तो यह कह कर खिलाती .. वैत अरे जीव तू आतमा शुद्ध है। निरंजन है तू और तू बुद्र है ।। फंसा है तू आकर के भौजाल में । निराला है तू इनसे पर चाल में ।। न माया में इनके अरे कुछ भी भूल । न सपने की संपत पै इतना तू फूल ।। तेरा कोई दुनिया में साथी नहीं । तेरा राज घोड़ा व हाथी नहीं ।। चौपाई पुत्र भूल तू जग में आया । माया ने तुझको भरमाया ।। है अलख निरंजन बेटा । जग माया ने तुझे लपेटा ।। है तू इस शरीर से न्यारा । परमातमा शुद्ध अविकारा ।। वही जतन तू कर सुत मेरे । जिस्से छूटें बन्धन तेरे ।। छोटेपन ही से ज्ञान के संस्कार से बड़ा होते ही वह लड़का संसार को छोड़कर बन में चला गया । और 4 भारतेन्दु समग्र ९८०