पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०८७

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हिंदुओ की किस्मत और हिम्मत । इस कम्बख्त गाड़ी से और तीसरे दर्जेकी गाड़ी से कोई फर्क नहीं, सिर्फ एक एक धोके की टट्टी का शीशा खिड़कियों में लगा था । न चौड़े बेंच न गवा, न बाथरूम । जो लोग मामूली से तिगुना रुपया दें उनको ऐसी मनहस गाड़ी पर बिठलाना, जिसमें कोई बात भी आराम की न हो, रेलवे कंपनी को सिर्फवेइंसाफी ही नहीं वरन धोखा देना है क्यों नहीं ऐसी गाड़ियों को आग लगाकर जला देती । कलकत्ते में नीलाम कर देती । अगर मारे मोह के न छोड़ी जाय तो उसमें तीसरे दर्जे का काम ले । नाहक अपने गाहको को बेवकूफ बनाने से क्या हासिल । लेडीज कंपार्टमेंट खाली था, मैंने गार्ड से कितना कहा कि इसमें सोने दो, न माना । और दानापुर से दो चार नीम अंगरेज (लेडी नहीं सिर्फ लैड) मिले उनको बेतकल्लुफ उसमें बैठा दिया । फर्स्ट क्लास की सिर्फ दो गाड़ी -- एक में महाराज, दूसरी में आधी लेडीज, आधी में अंगरेज । अब कहा सोवै कि नींद आवै । सचमुच अब तो तपस्या करके गोरी गोरी कोख से जन्म लें तब संसार में सुख मिले । मैं तो ज्यों ही फर्स्ट क्लास में अंगरेज कम हुए कि सोने की लालच से उसमें घुसा । हाथ फैलाना था कि गाड़ी टूटनेवाला विघ्न हुआ । महाराज के इस गाड़ी में आने से मैं फिर वहीं का वहीं । खैर इसी सात पाँच में रात कट गई । वादल के परदों को फाड़ फाड़कर ऊषा देवी ने ताकझांक आरभ कर दी । परलोकगत सज्जनों की कीर्ति की भांति सूर्य नारायण का प्रकाश पिशुन मेघों के वागाडंबर से घिरा हुआ दिखलाई पड़ने लगा । प्रकृति का नाम काली से सरस्वती हुआ, ठंडी-ठंडी हवा मन की कली खिलाती हुई बहने लगी । दूर से धानी और काही रंग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला । कहीं आधे पर्वत बादलों से घिरे हुए, कहीं एक साथ वाष्प निकलने से उनकी चोटियाँ छिपी हुई, और कहीं चारों ओर से उनपर जलधारा-पात से बुक्के की होली खेलते हुए बड़े ही सुहाने मालूम पड़ते थे । पास से देखने से भी पहाड़ बहुत ही भले दिखलाई पड़ते थे । काले पत्थरों पर हरी हरी घास और जहाँ तहाँ छोटे बड़े पेड़, बीच बीच में मोटे पतले झरने ; नदियों की लकीरें, कहीं चारों ओर से सघन हरियाली, कहीं चट्टानों पर ऊँरे नीचे अनगढ़ ढोंके और कहीं जलपूर्ण हरित तराई विचित्र शोभा देती थी। अच्छी तरह प्रकाश होते होते तो वैद्यनाथ के स्टेशन पर पहुँच गए । स्टेशन से वैद्यनाथ जी कोई तीन कोस हैं । बीच में एक नदी उतरनी पड़ती है जो आजकल बरसात में कभी घटती और कभी बढ़ती है । रास्ता पहाड़ के ऊपर ही ऊपर बरसात से बहुत सुहावना हो रहा है । पालकी पर हिलते हिलते चले । श्रीमहाराज के सोचने के अनुसार कहारों की गतिध्वनि में भी परदेश ही की चर्चा है । पहले 'कोहं कोह' की ध्वनि सुनाई पड़ती है फिर 'सोह सोह" को एकाकार पुकार मार्ग में भी उससे तन्मय किए देती थी। मुसाफिरों को अनुभव होगा कि रेल पर सोने से नाक थरांती है और वही दशा कभी कभी सवारियों पर होती है इससे मुझे पालकी पर भी नींद नहीं आई और जैसे तैसे बैजनाथ जी पहुँच ही गए । बैजनाथ जी एक गाँव है, जो अच्छी तरह आबाद है । मजिस्ट्रेट, मुनसिफ वगैरह डाकिम और जरूरी सब आफिस हैं । नीचा और तर होने से देश बातुल गदा और गधद्वारा है। लोग काले काले और हतोत्साह मूर्ख और गरीब है । यहाँ सौंथाल एक जंगली जाति होती है । ये लोग अब तक निर वहशी हैं । खाने पीने की जरूरी चीचे यहाँ मिल जाती हैं । सर्प विशेष है । राम जी की घोड़ी जिनको कुछ लोग ग्यालिन भी कहते हैं एक बालिश्त लंबी और दो दो उँगल मोटी देखने में आई। मंदिर बैद्यनाथ जी का टोप की तरह बहुत ऊंचा शिखरदार है। चारों ओर और देवताओं के मंदिर और वीच में फर्श है। मंदिर भीतर से अंधेरा है क्योंकि सिर्फ एक दरवाजा है। बैजनाथ जी की पिंडी जलधरी से तीन चार अंगल ऊँची बीच में से चिपटी है । कहते हैं कि रावण ने मुका मारा है इससे यह गहहा पड़ गया है । वैद्यनाथ बैजनाथ और रावणेश्वर यह तीन नाम महादेव जी के हैं । यह सिद्धपीठ और तिलिंग स्थान हरिद्रा पीठ इसका नाम है और सती का हृदयदेश यहाँ गिरा है । जो पार्वती अरोगा और दुर्गा नाभ की सामने एक दखी है वही यहाँ की मुख्य शक्ति हैं। इनके मंदिर और महादेव जी के मन्दिर से गाठ जोड़ी रहती है रात को महादेव जी के ऊपर बेलपत्र का बहुत लंबा चौड़ा एक ढेर करके ऊपर से कम खाब या ताश का खोल धाकर शृंगार करते हैं या बेलपत्र के ऊपर से बहुत सी माला पहना देते हैं सिर के गढ़ में भी रात को चंदन भरदेते हैं. वैद्यनाथ की कथा यह है कि एक बेर पार्वती जी ने मान किया था, और रावण के शोर करने से वह मान छूट गया, इसपर पहादेव जी ने प्रसन्न होकर वर दिया कि हम लका चलेंगे और लिंग रूप से उसके साथ चले । राह में जब बैजनाथ जी पहुँचे तब ब्राह्मण-रूपी विष्णु के हाथ में वह लिग देकर पेशाब करने लगा। 1 वैद्यनाथ की यात्रा १०४३