पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१०८८

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कई बड़ी तक माया-मोहित होकर वह मूतता ही रह गया और घबड़ा कर विष्णु ने उस लिंग को वहीं रख दिया । रापण से महादेव जी से यह करार था कि जहाँ रख दोगे वहाँ से आगे न चलेंगे इससे महादेव जी यही रह गए, वरच इसी पर खफा होकर रावण ने उनको मुका भी मार दिया । वैद्यनाथ जी मंदिर राजा पूरणमल्ल का बनाया हुआ है । लोग कहते हैं कि रघुनाथ ओझा नामक एक तपस्यो इसी वन में रहते थे । उनको स्वप्न हुआ कि हमारी एक छोटी सी मढ़ी भाड़ियों में छिपी है तुम उसका बड़ा मंदिर बनाओ । उसी स्वप्न के अनुसार किसी वृक्ष के नीचे उनको तीन लाख रुपया मिता । उन्होने राजा पूरणमल्ल को वह रुपया दिया अपने प्रबंध में मंदिर बनवा दें। चे बादशाह के काम से कडी चाले गए और कई बरस तक न लौटे, राव रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर अपने व्यय से मंदिर बनवाया । जब पूरणमल्ल आए और मंदिर बना देखा तो सभामंडप धनवाकर मंदिर के द्वार पर अपनी प्रशस्ति लिखकर चले गए । यह देखकर रघुनाथ ओझा ने दुखित होकर कि रूपया भी गया कीर्ति भी गई, एक नई प्रशस्ति बनाई और बाहर के दरवाजे पर खुतथा कर लगा दी। 1 वैद्यनाच महात्म्य मालूम होता है कि इन्हीं महात्मा का बनाया हुआ है क्योंकि उसमें छिपाकर रघुनाथ ओझा को नीरामचन्द्र जी का अवतार लिखा है। प्रशस्ति का काव्य भी उत्तम नहीं है, जिससे बोध होता है कि ओझा जी श्रद्धालु थे किंतु उद्धत पंडित नहीं थे। गिदौर के महाराज सर जयमंगलसिंह के.सी.एस.आई. कहते हैं कि पूरणमल्ल उनके पुरखा थे । एक विचित्र बात यहाँ और भी लिखने के योग है । गोवर्धन पर श्रीनाथ जी का मंदिर सं. १५५६ में एक राजा पूरणमल्न ने बनाया और यहाँ संवत १६५२ सन १५९५ ई. में एक पूरणमएल ने बैद्यनाथ का मंदिर बनाया । क्या यह मंदिरों का काम पूरणमल्ल ही को परमेश्वर ने सौंपा है? लोटकर निज मंदिर का लेख अचल शशिशायके शासित भूमि शकाब्दके । चलति रघुनाथके वहन पूजक नदया ।। विमल गुण चेतसा नृपति पूरणेनाचितं । त्रिपुरहरमंदिरं व्यरचि सर्वकामप्रदम् ।। नृपतिकूत पद्यमिदम् । सभामंडप का लेख चंद्र विष प्रतीकाश, प्रासाद चातिशोभनम् । हरिद्रा पीठके कर्नु काम्येस्मिन्नभवन्मुनिः ।।१।। न चेदं मानुष कर्म चोलराज महामते । भविष्यति न संदेह : कदाचिच्च कलो युगे ॥२॥ मुनेः कल्याणमित्रस्य पार्धस्य च महात्मन: । संवाद शृणु राजेन्द्र चेतिहासं पुरातनम् ।।३।। यदा कदाचिच्च कलो रामांशेन द्विजन्मना । कारयेत मठबरो कानने ।।४।। स्थय दाता समागत्य प्रोभिद्य मठकूवरम् । करिष्यति यत्नेन प्रच्छन्नो नरविग्रह: ।।५।। आर्जष शतसाहसस्मिन लिगे प्रतिष्ठितम् । वस्यगुला हि तलिग बेदिकोपरिचोत्थितम् ।।६।। अमोद शिखराकार योजना च विस्तृतम् । लक्ष लिंगोदभवं पुण्यं पूजनात्तस्य जायते ।।७।। छपाना पद्मनाभेन वंचितस्तु दशाननात् । रक्षणाय च देवानां दैत्याना चे यधाय च ।।८।। भारतेन्दु समग्न १०४ रावणेश्वर Sute