पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११४७

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अप्रैल १८८४ में महारानी के चतुर्थ पुत्र ड्यूक आफ अल्वनी के अकाल मृत्यु पर के शोक सभा करने की सोची और हिन्दी अंग्रेजी तथा उर्दू में आशय की नोटिस छपावा वांटी। सं० "हम लोगों की राजराजेश्वरी के चतुर्थ पुत्र के अकालमृत्यु पर शोक प्रकाश करने की १२ अप्रैल शनिवार की सन्ध्या को ६ बजे टाउन हाल में सर्वसाधारण की सभा होगी । श्री राजराजेश्वरी की सब प्रजा की वहां आना उचित है।" हरिश्चंद्र मार्च १८०८ ई० के चन्द्रग्रहण के अवसर पर सूतक के विषय में भारतेन्तु के विचार। सं० "इस वर्ष में जो चन्द्रमा का ग्रस्तोदय ग्रहण हुआ था उस में ज्योतिष के अनुसार तीसरे पहर से लोगों ने सूतक माना और हम लोगों के श्री श्री बल्ल्ममीय सम्प्रदाय की रीति के अनुसार श्री ठाकुर जी भी उसी समय से अलग विराजे, किन्तु ऐसा निश्चय होता है कि शास्त्रमान से सूतक मानने की आवश्यकता नहीं । व्यर्थ ठाकुर जी को इतने पहिले कष्ट दिया क्योंकि ग्रहण का सूतक ग्रहण के देने बिना नहीं होता यथा "सर्वेषामेव वर्णानां सूतकं राहु दर्शन', 'स्नानं दानं तपः प्राद मनन्तं राहुदर्शने', 'दत्तं जप्त हुतं स्नातभनन्तं राहुदर्शने' इत्यादि वाक्यों में जो दर्शन शब्द है और 'देखे गहन सुने सूतक' इस लोक कहावत से गहन जब तक लोक के दृष्टिगोचर न हो तब तक उस के सूतक का आरम्भ नहीं होता । अतएव 'सूययग्रहो यदा राचो दिवा चन्द्रग्रहस्तथा । तब स्नानं न कर्तव्यं दद्यावानं च न कञ्चित् विधान किया है । जो कहो प्रस्तास्तु में शस्त्ररीति से जब तक उग्रह न हो तब तक सुतक क्यों मानते हैं ? तो इस से उस से भेद है । उस में दर्शन को कर सूतक लग चुका है, उस की निवृत्ति शास्त्र रीति में हगहमान कर करना और यहां सूतक का प्रारम्भ ही नहीं हुआ है । जो कहो कि ऐसा मान कर फिर पहर दिन चढ़ने के भीतर भोजन करना क्योंकि चन्द्रग्रहण के पहिले केवल तीन पहर निषेध है सो नहीं । इस भोजन के हेतु एक विशेष वाक्य है यथा 'सन्ध्याकाले यदा राहुसते शशिभास्करौ । दिवा तब न भोक्तव्य रात्रो नैव कदाचन ।" भारतेन्दु को ऋण का चस्का कब लगा यह उनकी इस याददाश्त से पता चलता है। -सं० "एक बेर कोई कलकत्ते से लालरंग की चन्द्रजीति पहले पहल मंगल के मेले में लाया था । घर की नाव तमाशा देखने की हुई थी । हम ने वाल स्वभाव से चार रुपये की पावभर बुकनी मंगाकर उस पर छोड़ दी । पीछे उसका रुपया मुनीबजी ने नहीं दिया । जनाने में इत्तिला हुई । मायजी ने भी नहीं दिया । बड़ा पचड़ा हुआ । एक दिन भोजन नहीं किया । अंत में तंग होकर छग्गनलाल नामक एक मनुष्य से पुरजा लिख कर चार रूपया मंगाया तो उन्होंने उसी समय भेज दिया । वही मानो चसका लगा । बालको के सुधारने की इच्छा करने वाले माता पिता इस किस्से को कान लगाकर सुनें । उस समय वह चार न देना कैसा विष हुआ । अंत में चार लाख ले गया । बारुद तो चल ही गई थी बिना दिये कैसे काम चलता । यौवनारम्भ में बालक की इतनी कैद वा निगरानी खराब करती है।" भारतेन्दु द्वारा अनेक उपमानो से सूर्योदय वर्णन। -सं. पत्रकार कर्म ११०१