पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/११५९

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ने हाय ! क्या आज दिन उन के बड़े बड़े धनिक मित्रों में से कोई भी मित्र का दम भरने वाला ऐसा सच्चा मित्र है जो उनके इन मनोरथों में से एक को भी उनके नाम पर पूरा करके उनकी आत्मा को सुखी करे! हायरे ! हतभाग्य पश्चिमोत्तर देश, तेरा इतना मारी सहायक उठ गया, अब भी तुझसे उनके लिये कुछ बन पड़ेगा या नहीं ? जब कि बंगाल और बम्बई प्रदेश में साधारण हितैषियों के स्मारक चिहन के लिये लाखों बात की बात में इकट्ठे हो जाते हैं। बाबू साहिब के खास पसन्द की चीजें राग, वाद्य, रसिक समागम, चित्र, देश-देश और काल-काल की विचित्र वस्तु और भांति-भांति की पुस्तक थीं। काव्य उनको जयदेव जी, देव कवि, श्री नागरीदास जी, श्री सूरदास जी, और आनन्दधन जी का अति प्रिय था। उर्दू में नजीर और अनीस का । अनीस को अच्छा कवि समझते थे । संतति बाबू साहिब को तीन हुई । दो पुत्र एक कन्या पुत्र दोनों जाते रहे, कन्या है, विवाह है। गया । बाबू साहिब कई बार बीमार हुए थे, पर भाग्य अच्छे थे इसलिये अच्छे होते गये । सन् १८८२ ई. में जब श्रीमन्महाराणा साहिब उदयपुर से मिलकर जाड़े के दिनों में लौटे तो आते समय रास्ते ही में बीमार पड़े । बनारस पहुंचने के साथ ही श्वास रोग से पीड़ित हुए । रोग दिन-दिन अधिक होता गया महीनों में शरीर अच्छा हुआ । लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया । यद्यपि देखने में कुछ रोज तक रोग मालूम न पड़ा पर भीतर रोग बना रहा और जड़ से नहीं गया । बीच में दो एक बार उमड़ आया, पर शान्त हो गया था, इधर दो महीने से फिर श्वास चलता था, कभी-कभी ज्वर का आवेश भी हो जाता था । औषधि रही शरीर कृशित तो हो चला था पर ऐसा न ही था कि जिससे किसी काम में हानि होती, श्वास अधिक हो चला क्षयी के चिहन पैदा हुए । एका एक दूसरी जनवरी से बीमारी बढ़ने लगी, दवा, इलाज सब कुछ होता था पर रोग बढ़ता ही जाता था ६वी तारीख को प्रातःकाल के समय जब ऊपर से हाल पूछने के लिये मजदूरिन आई तो आप ने कहा कि जाकर कह दो कि हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा है, पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खासी की सीन हो चुकी, देखें लास्ट नाइट कब होती है । उसी दिन दोपहर से श्वास वेग से आने लगा कफ में रुधिर आ गया, डाक्टर वैद्य अनेक मौजूद थे और औषधि भी परामर्श के साथ करते थे परन्तु मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की । प्रतिक्षण में बाबू साहिब डाक्टर और वैद्यों से नींद आने और कफ के दूर होने की प्रार्थना करते थे, पर करें क्या काल दुष्ट तो सिर पर खड़ा था, कोई जाने क्या, अन्ततोगत्वा बात करते करते पावे १ बजे रात को भयंकर दृश्य आ उपस्थित हुआ । अन्त तक श्रीकृष्ण ध्यान बना रहा । देहावसान समय में श्रीकृष्ण । श्रीराधाकृष्ण । हे राम । आते हैं सुख देख लाओ कहा और कोई दोहा पढ़ा जिसमें से श्रीकृष्ण सहित स्वामिनी इतना धीरे स्वर से स्पष्ट सुनाई दिया । देखते ही देखते प्यारे हरिश्चन्द्र जी हम लोगों की आंखों से दूर हुए । चन्द्रमुख कुम्हिला कर चारो ओर अन्धकार हो गया । सारे घर में मातम छा गया, गली-गली में हाहाकार मचा, और सब काशीवासियों का कलेजा फटने लगा । लेखनी अब आगे नहीं बढ़ती बाबू साहिब चरणपादुका पर हा! काल की गति भी क्या ही कुटिल होती है, अचानक कालनिद्रा ने भारतेन्दु को अपने वश में कर लिया कि जिससे सब बहा' के तहां पाहन से खड़े रह गये । वाह रे छुष्ट काल ! तूने इतना समय भी न दिया जो बाबू साहिब अपने परम प्रिय अनुज बाबू गोकुलचन्द्र जी को बाबू राधाकष्णदास तथा अन्य आत्मीयों से एक बार अपने मन की बात भी कहने पाते और हमको, जिसे उस समय यह भयंकर दृश्य देखना पड़ा था, इतना अवसर भी न मिला कि अन्मि सम्भाषण भी कर लेते हा ! हम अपने इस कलंक को कैसे दूर करें । वह मोहनी मूर्ति भुलाये नहीं भूलती पर करें क्या । बाबू साहिब की अवस्था कुल ३४ वर्ष ३ महीने २७ दिन १७ पं. ७ मि. और ४८ से. की थी। पर निर्दयी काल से कुछ वश नहीं । »make विविध १११३