पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२५

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मरिन बहु जानि छोड़ि के गोकुल भागे मधुरा जाय । । मेरी तुमरी प्रीति पिया अब जानि गए सब लोगवा । सदा सर्वदा हारत आए भक्तन सों ब्रजराय। | लाख छिपाए छिपे नहि नैना इन प्रगट्यौ संजोगवा । बहम सोहूँ हारत ही बनिहै कबहुँ न ही जीत । | हंसत सबै मारत मिलि ताना सुनि सुनि बाढ़त सोगवा। तासों तारौ 'हरीचंद' को मानि पुरानी प्रीति ।३० ताहू पर 'हरिचंद' मिलत नहि श्री राधे कहा अजगुत कियो । कठिन भयो यह रोगवा ।३४ अखिल लोक-निकुज-नायक सहज निज करि लियो। | प्राननाथ मन-मोहन प्यारे बेगहि मुख दिखराओ । जास माया जगत मोहत लखि तनिक दृग-कोर । | तलफत प्रान मिले बिनु तुमसों क्यों न अबहिं उठि धाओ। सोई प्रभु तुव मोह मोहे नचत भौंह मरोर । । केहि बिधि कहाँ कहत नहिं आवै जिय के भाव पियारे। रसन को अवलंब जेहि आनंदघन मृति कहत। अपनो नेह हमहिं पहिचानत हे ब्रजराज-दलारे । सोई रसिक कहावत तो सों तोहि सों सुख लहत । जग मैं जा कह प्रीति-रीति सब भाषत हैं नर-नारी । जासु रूठे जगत मैं कछु सेस नहिं रहि जात । तासों अधिक बिलच्छन हमरी प्रेम-चाल कछु न्यारी। सोई तव रुठे बिकल ह्वै दीन बने लखात । मोह कहत कोउ भक्ति बखानत नेह प्रेम कोउ भाई। जगत-स्वामी नाम के करि भेद जौन कहात । | तिन सब सों बढ़ि प्रीति हमारी कहो नाम कह राखें । सो कहत तोहिं स्वामिनी यह अतिहि अचरज बात । समुझत कोउ न बात हमारी पागल सबहि बखाने । रिखिन जो रस नहिं लयौ करि थके कोटि प्रसंस।। तुमरे नेह अलौकिक की गति कहौ कोऊ किमि जानै । सहज किय 'हरिचंद' सो करि प्रगट वल्लभ-बंस ।३१ | जाके कहे-सुने जग रीझत सो कछु और कहानी । तुम बिनु तलपत हाच बिपति बढ़ी भारी हो। हम जिमि पागल बकत सुनत नहितासों कोउमम बानी। तुम बिनु कोऊ नहिं मोर पिया गिरधारी हो। | जानत नहि परिनाम आपनो केवल रोअन जाने । तुम बिनु व्याकुल प्रान धरौं कैसे धीर हो। अति विचित्र मेरी गति प्यारे कैसे कहो बखाने । आइ मिली गर लगी पिया बलबीर हो । छूटत जग न धरम कछु निवहत रहत जीअ अकुलाई । तुम बिनु सूनी सेज देखि जिय जारई। होत न कछु निरनै का ह्वै है तुम बिन कुँवर कन्हाई । काम अकेली जानि बान कसि मारई।। कहा करै कित जाँय पियारे कछुक उपाव बताओं । तम बिनु अति अकुलाय बैन नहि कहि सकौं। हराचद' ऐसे नेहिन को क्यों न धाई गर लाओ किर मिली पिया 'हरिचंद' भई बौरी बकौं ।३२ तुम बिन प्यारे कहूँ सुख नाहीं । करनी करुनासिंधु की कासों कहि जाई। | भटक्यौ बहुत स्वाद-रस-लंपट ठौर-ठौर जग माही । अति उदार गुन-गन भरे गोबरधन-राई। प्रथम चाव करि बहुत पियारे जाइ जहाँ ललचाने । तनिक तुलसी दल के दिये तेहि बहु करि माने । तहँ ते फिर ऐसो जिय उचटत आवत उलटि ठिकाने । सेवा लघु निज दास की परबत सी जाने । जित देखो तित स्वारथ ही की निरस पुरानी बातें । अजामेल सुत आपनो तुव नाम पुकार्यो । अतिहि मलिन व्यवहार देखि कै घिन आवत है तातें। ताके अघ सब दूर के तुम तुरत उबार्यो । हीरा जेहि समझत सो निकरत काँचो काँच पियारे । कहा ब्याध गजराज सों करनी बनि आई। या व्यवहार नफा पाछे पछतानो कहत पुकारे । कहा गीध गनिका कियो तारयो तुम धाई। सुंदर चतुर रसिक अरु नेही जानि प्रीति जित कीनो । कहा कपिन को रूप है का गुन बड़िआई । तिन स्वारथ अरु कारो चित हम भले सबहि लख लीनो। तिन सों बोले बन्धु से ऐसी करुनाई । सब गुन होई जुपै तुम नाहीं तौ बिनु लोन रसोई। कहाँ सुदामा बापुरो कहँ त्रिभुवन स्वामी । ताही सो जहाज-पच्छी-सम गयो अहो मन होई । ताकी अग्रज सारखी किय चरन-गुलामी । अपने और पराए सब ही जदपि नेह अति लावें। कहाँ ग्वाल और ग्वालिनी करनी की पूरी । पै तिन सो संतोख होत नहिं बहु अचरज जिय आवै । जिनके सँग बन मैं फिर हरि करत मजूरी । जानत भलें तुम्हारे बिनु सब बादहि बीतत साँसे । ब्रज के मृग पसु भीलनी तृन बीरुध जेते । 'हरीचंद' नहिं छुटत तऊ यह कठिन मोह की फाँसे।३६/ बंधु सरिस माने सबे करुनानिधि तेते । भूलि भव-भोगन झूमत फिर्यो । कहाँ अधम अघ सों भर्यो 'हरिचंद' भिखारी। | खर कूकर सूकर लौं इत उत डोलत रमत फिर्यो । जेहि माधो सहजहि लियो गहि बाँह उबारी ।३३जहँ जहँ छुद्र लयौ इंद्री-सुख तहँ तहँ भ्रमत फिरौं। प्रेम-प्रलाप ८५