पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१२६

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छन भर सुख नित दुखमय जे रस तिन में जमत किरयौं। 'हरीचंद' निरदै मन-मोहना सिकारी |Mod कबहुँ न दुष्ट मनहि करि निज बस कामहि दमत फिरौं। | जहाँ तहाँ सुनियत अति प्यारो । हरीचंद' हरि-पद-पंकज गहि कबहुँ न नमत फिर्यो ।१६/ प्यारे हरि को सुखद बिसद जस । जो पै ऐसिहि करन रही। करन रंध्र मैं सवत सुधा सम तो क्यों इतनी प्रीत बढ़ाई जो न अंत निबही । सीतल होय हियो सुनि अति रस । मीठे मीठे बचन बोलि के दीनी क्यों परतीति । | अजामेल ग सों जो कीनी । अब क्यौं छाँडि पराए हवै गए कहो कहो कौन यह नीति । दीन सुदामा कोजु कियो हित । सबरी कपि गनिका की करनी जौ मधुपुरी गमन तुम पहिलेहि बदि राखी मन माहीं । । नाथ-कृपा गावत सब जित तित । क्यों वृंदावन सरद-चाँदनी बिहरे दै गल-बाहीं । बधिक विराध व्याध जवनादिक कहाँ गई वह बात तुम्हारी कहाँ गयो वह प्यार । कित गई प्रेम भरी वह चितवनि जिहिलखि लाजत मार। तारे छिनक बार लागी नहिं । पहिले कहि देते हम सों नहि निबहेगो यह प्रेम । पावन कियो पुलिंदी-गन को दै 'हरीचंद' यह दगा दई क्यों ठानि प्रीति को नेम ।३८ | कुच-कम-जुत-पद-राज महिं । भााँत अनेक विविध विधि बरनित प्राननाथ भई सब भाँत तिहारी । अगिनित गुनगन गथित मथित श्रुति । बिगरी सबही भाँति कोऊ नाहिन रखवारी । जहाँ तहाँ सुनियत सबके मुख कहा करें कित जायं ठौर नहिं कतहुँ लखाई । श्रवन सुखद संतत हिय हित अति । सब भाँतिन सो दीन भई दोउ लोक गवाई। माने धरम न एक रही तुव पद अनुरागीं । कोउ जस कोऊ गरीब-नेवाजी कोऊ पतित-पावनता गावत । कठिन करम अरु ज्ञान लखत दरहि तें भागीं । तुव पद-बल अभिमान न कोउ कहँ तन सम जान्यो । दीन-बंधु-ताई हितकारी हित अनहित नहिं लख्यौ जगत काहवैन मान्यो । सरस सुभाव नेह बरसावत । काहू की नहिं होइ रही कोउ कियो न अपनो । नृप नारी द्रौपदी आदि सम ऐसी बेसुध जगत बसी मनु देखत सपनो । गावत ग्राम नगर नारी-नर । भली वात जेहि जगत कहत सो एक न कीनी ।। हियो भर्यो आवत सुनि सुनि के रही कुचालन सनी सदा गति अपजस पीनी । गोविंद नामांकित जस सुंदर । काहू सों नहिं डरीं रही बहु बैर बढ़ाई । कह लौं कहीं कहत नहिं आवत अनहित जगहि बनायो नहि सीखी चतुराई । . जो हरि करत पतित-हित कारन । महामोद में बही सदा दुख ही दुख पायो । 'हरीचंद' सरनागत-वत्सल, रोअत ही करि हाय हाय सब जनम गंवायो । दीन-दयानिधि पतित-उधारन ।४१ मनवत मनवत ह्वै गयो भोर । सुख केहि कहत न हाय कबौं सपनेहूँ जान्यौ । जग के स्वादन हूँ कह नहिं कबहूँ पहिचान्यौ । खसित निसा-नायक पच्छिम दिसि सोर करत तमचोर। उमगि उमगि के सीदा रहीं रोअत दुख मानीं । पियहि सबै निसि जागत बीती खरे खरे कर जोर । कोउ सों मरम न कह्यौ रहीं मन फिरत दिवानी । आलस बस अब लरखरात पग निरखत तुव द्ग कोर। 'हरीचंद' कोउ भांति निबाही प्रीति तुम्हारी । क्यौं सखि प्रेमहि लाज लगावति करिकै बृथा मरोर । मैं अब सो नहिं चलत हहा प्यारे बनवारी ।३९ 'हरीचंद' गर लग उठि पिय के हौ तोहिं कहत निहोर।४२ आजु मेरे भोरहि जागे भाग। खोजह न लीनो फेरि नैन-बान मारि कै । आए पिया तिया-रस-भीने खेलत दृग जुग फाग । तड़पत ही छोडि गयो घायल करि डारि के। भलौ हमैं भूलै तौ नाही राख्यौ जिय अनुराग । भौंह की कमान तान गुन-अंजन छाकि कै। साँझ भोर एक ही हमारे तुव आवन की लाग । काम जहर सों बुझाई मारो मोहिं ताकि कै। मंगल भयो भोर मुख निरखत मिटे सकल निसि दाग। व्याकुल हौं तलपत तेहि दया नाहिं आवई । 'हरीचंद' आओ गर लागो साँचो करौ सोहाग ।४३२ पानिप पानिप पिआइ मोहि ना जिआवई । हम तुम पिया एक से दोऊ । प्रानहु अवसाने तन व्याकुल भई भारी । 'मानौ बिलग न नेक साँवरे घट बढिके नहिं दोऊ IAS Akh भारतेन्दु समग्र ८६