पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

Insti होली [हरि प्रकाश यंत्रालय द्वारा सन् १८७९ में मुद्रित ] समर्पण प्यारे, कहाँ चले? इधर आओ, त्यौहार घर का करो। देखो, हमने होली के कुछ खेल इन पत्रों में लिखे हैं, इनसे जी बहलाओ। तुम्हारा हरिश्चंद्र होली - दोहा सिंदूरा भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर ।। कान्ह तुम बहुत लगावत अपुने को होरी-खिलार जति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । निकसि आव मैदान दुरत क्यों लै चौगान निवार । तू नंद-गैयाँ तो हैं हमहूँ बरसाने की नार । भपताल सहाना अब को दाँव जो जीते तोपें 'हरीचंद' बलिहार ।३ सखी बनि ठनि तू चली आज एरी या ब्रज में बसिकै तरह दिये ही बने काज । कितकों न जानत है मग श्याम खड़ोरी। वह तो निलब बिचार करत नहिं तू कत खोवत लाज। चंद सों बदन ढाँकि नीले पट तू कुलबधू सुलच्छनि गोरी क्यों डरवावति गाज । देखु न आगे ही छैल अड़ो री। 'हरीचंद' के मुख नहिं लगनो होरी के दिन आज ।४ वा मारग कोउ जान न पावत होरी को खभ सों हवै कै गड़ोरी।। सखी री कासों ठानत सरबर तू बे-काम । 'हरीचंद' वासों भली दूर ही की वह तो धूत फफंदी ब्रज को तू है कुल की बाम । बिहारी खिलारी फफदी बड़ो री ।१] कौन जीतिहे ढीठ निलब सों तू कित नाहक करत कलाम। बिहाग 'हरीचंद' निज बाट चली चल याको उपाधी नाम 1५ धनाश्री रे निठुर मोहिं मिल जा तू काहे दुख देत । दीन हीन सब भाँति तिहारी क्यों सुधि काई न लेत ।। | मनमोहन चतुर सुजान, छबीले हो प्यारे । सही न जात होत व्याकुल बिसरत सब ही चेत । | तुम बिनु अति व्याकुल रहैं सब ब्रज के जीवन प्रान। हरीचंद' सखि सरन राखि कै भल्यो निबाह्यो हेत २ तुमरे हित नंद-लाडिले हो छोड़ि सकल धन-धाम । होली १०९