पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/१४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

MOFAK नीचे ही नीचे निपट दीठि कही लौं दौरि । उठि ऊंचे, नीचे दियो मन-कलिंग झकझोर ।२५७ खरे त्रिबस मे रहत न साज-लगामन जकरे ।०९। मन लिंग झकझोरि कियो परबस मोहिं प्यारी । कहाँ जाऊँ, का करौं, भयो जिय अतिहि दुखारी। नेक न झुरसी बिरह-हार नेह-लता कम्हिलाति । अब नहिं अन उपाय सुधाधर-रस-बिनु सींचे। नित नित होति हरी हरी, खरी झालरति जाति ।" सब विधि कियो निकाम निखि दगऊँचे नीचे १७९ खरी झालरांत जाति मनोरथ करि उमगाई । नैन-तुरंगम अलक-विछरी लगी जेहि आइ। सीनि सीचि असुवानि अवधि-तरू लाइ चढ़ाई निहि ढि मन चंचल भयो मति दीनी बिसराइ । बनमाली 'हरिचंद' चलहु लावह ले उर सी । मात दीनी बिसराइ बिबस इत सो उत डोले । लखह आपनी नेह-लाता बलि नेक न झुरसी । छूटी धीरता-डोर न मुखहू सों कछु बोले ।। सुपथ-कृपथ नहि लखत भयो बुधि-बिनु उनमद सम। | कर उठाह चूंघट करत उसरत पट-गुझरोट । .. सब विधि व्याकृत भयो चेत चढि नैन-तुरंगम ।८० | सुख-मोटे लूटी ललन लखि ललना की लोट 1४२ ऐंचित सी चितवनि चितै भई ओट अलसाह । लखि ललना की लौट ललन-द्ग टरत न थारे । फिर उझकान को मृग-नर्यान दर्गान लगानया लाइ ।३२० लोट-पोट हवे रहे छके सुधि सकल बिसारे । दुर्गान लगनिया लाइ इहाँ सों किते दुरानी। । दुरि दुरि साम्हे होत रसिक 'हरिचंद' चतुर तर । कल न परत बिनु लखे विकल गति मति बौरानी । अरुझे वारहिं बार लखत त्रिबली-मुख-दृग-कर । छड़ि विवस 'हरिचंद' गई बुधि धीरज सैंचति । दृग-बसी मन-मीन रूप निज गन-बिम ऐचति ।१ नभ लाली आली भई चटकाली धुनि कीन । रतिपाली, आली. अनत. आए बनमाली न ।११ करे चाह सो चुक के खरें उड़ौहें मैन । लाज नवाए तरफरत करत खुद सी नैन ।५४२| आए बनमाली न करी सखि बहुत चाली । करत खुद सी नैन मेंड़ गुरुजन की तोरत । | काली व्याली रैन बिरह घाली जिय माली । लोक-सीक नहिं गिनत उतैही हठि मुख जोरत । बाली दीपक जोति मन्द भइ प्रीति न पाली । मन-सहीस 'हरिचंद' थक्यो बुधि-बागहि पकरे ।। टाली हाली औध भई खाली नभ-लाली । SMED भारतेन्दु समग्न १०८