पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२३०

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अध षट् ऋतुरूपक कवित्त बसंत जनम लियो है महारानी-कोख-सागर तें आनंद सों बौरी प्रजा, धाये मधुप समाज । जामें तौ कलंक को न लेसहु लखायो है । मन-मयूर हरखित भए, राजकुंवर-रितुराज ।६ ग्रीष्म सुभट समूह साथ सोहत है तारागन कुमुदहि तू न हिए हरख बढ़ायो है । तपत तरनि तिमि तेज अति, सोखत बैरि अपार । चाहि रहे चाह सों चकोर हवै प्रजा के पुंज जीवन में जीवन करत, ग्रीषम-राजकुमार ७ बैरी तम निकर प्रकास ते नसायो है। वर्षा आनंद असेसे दीवे हेत हिंद बीच आज प्रजा कृषक हरखित करत, बरसत सुख-जल-धार । कुंवर प्रतापी नख-तेस बनि आयो है ।१ उमगावत मन नदिन को, पावस-राजकुमार । कोकिल समान बोलि उठे हैं सुकवि सबै कामदार भौर से बधाई लै लै धाए हैं। लागि उठी लाय बिरहीन की सी बैरिन कों फूले सब जन मन कमल, नभ-सम निरमल देस । बौरि उठे हाकिम रसाल से सुहाए हैं। बिकसित जस की कैरवी, आया सरद नरेस ।९ फूलि के सफल मे मनोरथ सबन ही के नाचि उठे मोर से प्रजा के मन भाए हैं। साजि के समाज महारानी के कुंवर आजु मुरझावत रिपु-बनज बन, अरिन कॅपावत गात । दीबे सूख-साज रितुराज बनि आए हैं ।२/ राजकुंवर हेमंत बनि, आवत आज लखात ।१० दोहा सिसिर अरी आज संभ्रम कहा जान परत कछु नाहिं । पीरे मुख बैरी पर, पिकन बधाई दीन । बोरे से दौरे फिरत फूले अंगन माहिं ।३ सीरे उर सब जन भए, सिसिर-कुमार नवीन ।११ धावत इत उत प्रेम सों गावत हरख बाय । विनय आवत राजकुमार यह कहत सुनाय सुनाय ।४ बिनवत जुग प्रफुलित जलज, करि कलि कैक समान। करत मनोरथ की लहर सागर मन समुदाय । धुजा-भुजा की छांह मैं, देहु अभय-पद दान ।१२ राजकुंवर-मुख-चंद लखि, उमगि चल्यो अकुलाय ।५ AN OFFERING OF FLOWERS सुमनोज्जलिः । रचना काल सन् १८७० श्रीमन्महाराजकुमार डयूक आफ एडिनबरा चरणकमले समर्पित : TO HIS ROYAL HIGHNESS, THE DUKE OF EDINBURGH, K.G., K.T., G.C.M.G., K.G.C.S.I. मारतेन्दु समग्र १९०