पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/२६०

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इनहूँ कहें ज्ञान सनेह मया ।६१ तेज चंड सो हरहु कुमारा । इनहूँ कहें लाज तृषा ममता । पोछहु मम दुख को जल-धारा । इनहूँ कहें क्रोध क्षुधा समता । लै भारत-बासी मम सुत ढिग । इनहूँ तन सोनित हाड़ तुचा । बैठहु छिनक लखहु छबि भरि दृग ७३ इनहूँ कहँ आखिर ईस रचा ।६२ लखहु लखहु सुत आनंद भारी । कबहुँ कबहुँ अबहुँ सोई उदय होत चित आस । कैसो छायो भुवन मँझारी । इनसों करहु न कुँअर तुम कबहूँ जीय उदास ।६३ | तुमहिं देखि सब पुलकित गाता । सोई परम पवित्र मुव आये अहो कुमार । गदगद गल कहि सकहि न बाता ७४ ताहि न समझहु तुच्छ तुम सो संबंध बिचार ।६४ | कहहि धन्य यह रैन धन्य दिन । पालत पच्छिहु जो कुंअर करि पिंजरन महँ बंद । धन धन धरी आज धन पल छिन । ताहू कह सुख देत नर जामें रहै अनंद ।६५ | प्रेम-अनु-जल बहहि नैन तें। सोई सुख लहि घरहु में गावत बिबिध बिहंग । जिअहु कुँअर सब कहहि बैन तें । जतनहिं सो बस होत हैं बन के मत्त मतंग ।६६ | फिरहु कुँअर जब जननी पासा। कोकिल-स्वर सब जग सुखी बायस-शब्द उदास । कहियो पूरहिं मम मन-आसा । यह जग को कह देत है वह कह लेत निकास ।६७ मिथ्या नहिं कछु याके माहीं । केवल यह माखै मधुर वह कठोर रव नित्त । राजभक्त्त भारत-सम नाहीं ।७६ तासों जग चाहे सबै मधुर सरल बस चित्त ।६८ लेहिं प्रात उठिकै तुव नामा । हम तुव जननी की निज दासी । करहिं चित्र तव देखि प्रनामा । दासी-सुत मम भूमि-निवासी । तुमरे सुख सों सब सुख पावें । तिनको सब दुख कुँअर छुड़ावो । छल तजि सदा तुवहि गुग गावै ।७७ दासी की सब आस पुरावो ।६९ यह कहि भारत नैन भरि आँचर बदन छिपाय । मेटहु भय कर अभय दिखाई। दै असीस जिय सों नृपहि भई अदृश्य सुहाय ।७८ हरहु बिपति बच मधुर सुनाई । बजे बृटिश डंका सघन गहगह शब्द अपार । बृटिश-सिंह के बदन कराला । जय रानी विक्टोरिया जै जुवराज-कुमार ।७९ लखिन सकत भयभीत भुआला ७० फाटत हिय जिय थर थर कंपत । तेज देखिकै दुग जुग झपत । उदयो भानु है आजु या देस माहीं । कहि न सकत मन को दुख भारी । रहयो दु:ख को लेसहु सेस नाहीं । झरत नैन जुग अंबिरल बारी ।७१ महाराज अलवर्त या भूमि आये । अरे लोग धाबो बजावो बधाये ।८० सौदागर मेलुआ जहाजी। गोरा धरमपती जग काजी । छुटी तोप पहरी धुजा गरजे गहकि निसान । सबहिं राज सम पूजन करहीं । भुव-मंडल खलमल भयो राजकुमार-प्रयान ।८१] सबको मुख देखत ही डरहीं ।७२ पूर्ण कोरस भारतेन्दु समग्र २२०