पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३०५

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पद और गीत भुजन बमय बेग मेरी ओर आइ के। ठाढ़े लिए नंद के नंदन भरि कै कंचन झारी । विरद निभाय लीजै मरत जिवाइ लीजै ललिता लिए सुभग बीरा कर लौंग कपूर सोपारी । हा हा प्रान-प्यारे धाइ लीजै गर लाइ कै ।२१ जुग जुग राज करौ या ब्रज में 'हरीचंद' बलिहारी । आजु एक ललना जवाहिर खरीदबे को बैठे पिय-प्यारी इक संग। आई हुती सुधर सुहाई हाट वारे की । परदा परे बनाती नहुँ दिसि बाजत ताल मृदंग । कर के लिये तैं भए मुक्ता प्रवाल जैसे धरी अंगीठी स्वच्छ धूम-बिन गावत अपने रंग । गुजा से लखाने फेरि दीठि दृग-तारे की । 'हरीचंद' बलि बलि सो छबि लखि राधा लिए उछग ।७ कहे 'हरिचंद' मोतीचूर से लखात फेरि हास को विलास बढ़यौ सुखमा कतारे की । अब तो आय परयौ चरनन मैं । बीजक को मोल घट्यो नफा की चलावे कहा जैसो हौं तैसो तुमरोई राखोइगे सरनन मैं । अकिल हेरानी लखि जौहरी बेचारे की ।२२ गनिका गीध अभीर अजामिल खस जवनादिक तारे । औरहु जो पापी बहुतेरे भये पाप तें न्यारे । सुत-बध हेत पूतना आई सब बिधि अघ तें पानी । प्रगटे द्विजकुल-सुखकर-चंद । जो गति बननीहूँ को दुर्लभ सो गति ताको दीनी । भक्ति-सुधा-रस निस-दिन बरषत सब बिधि परम अमंद औरो पतित अनेक उधारे तिनमें मोहुँ को जान । तुमही एक आसरो मेरे यह निहचे करि मान । मायावाद परम अँधियारी दूरि कियो दुख-द्वंद । बुरो भलो तुमरोइ कहावत याकी राखौ लाज । भक्त-हृदय-कुमुदिनि प्रफुलित भई भयो एरम आनंद । 'हरीचंद' ब्रजचंद पियारे मत छोडहु महराज ।८ काशी नम महँ किरिन प्रकाशी बुध सब नखत सुछंद । 'हरीचंद' मन-सिंधु बढ्यो लखि रसमय मुख सुखकंद।१ | माई री कमल-नेन कमल-बदन बैठे हैं जमुना-तीर । कमल से करन कमल लिए फेरत सुंदर स्याम सरीर । हरि-सिर बाँकी बिराजै । कमल की कंठ माल ललित ललाम जाँको लाल जमुन-तट ठाढ़ो बाँकी मुरली बाजै । बनी कमल ही को कटि चीर । बांकी चपला चमकि रही नव बांको बादल गाजे । कमल के महल कमल के खंभा भौरन की जापे मीर । हरीचंद' राधा जू की छवि लखि रति मति गति भावे।२ सुंदर कमल फूले लहलहे सोहत तामधि झलकत नीर । सखी री ठाढ़े नंद-किसोर । 'हरीचंद' पद-कमल जपत नित मंजन-भव-भय-भीर।२ वृंदावन में मेहा बरसत निसि बीती भयो भोर । नील बसन हरि-तन रााजत हैं पीत स्वामिनी मोर । मंगल मंगल मंगल रूप । 'हरीचंद' बलि बलि ब्रज-नारी सब ग्रजजन-मनचोर ।३ | मंगल गिरि गोवर्धन पार्यो मंगल गिरिधर ब्रज के भूप । मंगलन्मय वखभानु-नदिनी श्रीराधा अति रुचिर सुरूप । हरि को धूप-दीप लै कीजै । मंगल बल्लभ-चरन-कृपा से षटरस बींजन बिबिध भाँति के नित नित भोग धरीजै । 'हरीचंद' उबर्यो भव कूप ।१० दही मलाई घी अरु माखन तापो पै लै दीजै । 'हरीचंद' राधा-माधव-छबि देखि बलैया लीजै ।४ घर तें मिलि चलीं ब्रज-नारि । खसित कवरी नैन घूमत सजे सकल सिंगार । सुदामा तेरी फीकी छाक । मेरी छाक रोहिनी पठई मीठी आर सु-पाक । लिए पूजन-साज कर मैं कुटिल बिथुरे बार । कृष्ण-गुन गावत सुबिहसत 'हरीचंद' निहार ।। बलदाऊ को कोरी रोटी मोको घी की दोनी । सो सुनि सुबल तोक उठि बैठे मेरी बहुत सलोनी । जल में न्हात है ब्रज-बाल । जैसी तेरी मैया मोटी तैसी मोटी रोटी । मास अगहन जान उत्तम मिलन को गोपाल । मेरी छाक भली रे भैया जामें रोटी छोटी । हाथ जोरि सुकहत देविहि देउ पति नंदलाल । बोलत राम पतौका लै लै बैठो भोजन कीजै । चीर ले 'हरिचंद' भागे सुभग स्याम तमाल ।१२ बच्यो बचायो अपनो जूठन 'हरीचंद' को दीजै ।५ खोजत बसन ब्रज की बाल । भोजन कीनो भानु-कुमारी । स्फुट कविताएँ २६३