पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४०

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धार बरसाता है-अहा भगवान ने फिर दिन फेरे रा.-आप ही आप) इतना विलम्ब क्यों क्या? अब मैं भी छत पर चल कर देखु कि समा में लगा ? (शरीर हिला कर) विद्यावती के संग जो इसका क्या होता है। गांधर्ष विवाह हुशा वह अच्छा ही हुआ क्योकि नीच जिवनिका गिरती है) कुल में विवाह करने से तो मरना अच्छा होता है. परन्तु | हमारी विद्यावती ने कुछ अयोग्य नहीं किया, यह एक भाग्य की बात है नहीं तो मैं अपने हाथ से कन्या को जन्म भर का दुख दे चुका था. अहा भगवान ने बहुत तीसरा गांक बचाया (धार की ओर देख कर मंत्री अब तक नहीं आये (राजा सिंहासन पर बैठा है) | (नेपथ्य में पैर का शब्द सुन कर) जान पड़ता है कि सब (मनी पास है और कुछ दूर पर गंगा भाट खड़ा है।) आते है (गंगा भाट आता है) राजा.-मंत्री, गंगा भाट ने जो कहा सो तुमने गं.- महाराज, कानीराजपुत्र को मंत्री आवर सुना? पुर्षक से आते है (मंत्री और मुन्दर) । मंत्री-महाराज, सब सुना । रा.- (सुन्दर का मुख चूम कर) यहाँ आओ पुत्र रा.- तब फिर उनको चोर जान कर कारागार | यहा (हाथ पकड़ कर अपने सिंहासन पर बैठाता है) में भेज देना बुरा हुआ? बेटा मैने तुझको जाज अनेक दु:ख दिये. इस दोष को म.- महाराज, पहिले वह कौन जानता था कि में स्वीकार करता हूँ और यह मांगता हूं कि आज यह राजा गुणसिन्धु का पुत्र है, केवल चोर समझ कर से इन बातों को मूल जाओ। दंड दिया गया सु.-(हाथ जोड़ कर महाराज! आपका क्या ग.-पर जब से मैने उसे देखा तभी से मुझ को दोष है यह तो आपने मुझे उचित दंड दिया था. यह संदेह था कि श्राकार से यह कोई बड़ा तेजस्वी जान केवल मेरे यौवन का दोष था कि मैने आपके यहा अनेक पड़ता है और मैं सच कहता हूं कि उसकी मधुर मूर्ति अपराध किए सो मैं हाथ जोड़कर मांगता हूं कि आप और तरूण अवस्था देख कर मुझे बड़ा मोह लगता मुझे क्षमा करें। था जो कुछ हो अब तो विलम्ब मत कर और शीघ्न रा. - (मंत्री से मंत्री रनिवास में से विद्यावती ही आप जाकर उसे से आ क्योंकि कोतवाल अभी को शीघ्र ले पायो कारागार तक न पहुंचा होगा। मं.-जो आज्ञा (जाता है)। म.-जो आज्ञा महाराज. मैं अभी जाता हूँचाना रा.-बेटा, मैंने तुमको जितना दुख दिया है चाहता है। उसके बदले तो में तुम्हारा कुछ भी सन्तोष नहीं कर रा.- पर केवल सुन्दर का लाना ओर कोतवाल सकता पर मैं इतना कहता हूँ कि तुम ने विद्यावती से इत्यादिक को मत जाना । जो गांधर्व विवाद किया है उस में में प्रसन्नता मं.-जो आज्ञा जाता है) | पूर्वक सम्मति प्रगट करता है जिस से अवश्य तुमको राजा.-क्यों कविराज, तुम उसे अच्छी भाति बड़ा संतोष होगा। पहिचानते हो कि नहीं? मुं.-- (हाथ जोड़ कर महाराज, आपकी कृपा हो गंगा-महाराज, मैं भली भांति पहिचानता हूँ से मुझ को बढ़ा संतोष हुन । और पृथ्वीनाथ ! बिना जाने में कोई बात निवेदन भी तो (मंत्री आता है। नहीं कर सकता। रा.-मंत्री क्या विद्यावतो जाई ? रा.-तो गुणसिन्धु राजा का पुत्र वही है? मं.-महाराज अभी आती है। गं.-महाराज, इसमें कोई सन्देह नहीं। ग. - (सुन्दर से) बेटा. तुम ने पकड़े जाने के रा.-तुम जो न कहते तो बड़ा अनर्थ होता । यह समय अपना नाम क्यों नहीं बतलाया नहीं तो इतना भी हमारे भाग्य की बात है कि ईश्वर ने धर्म बचा उपद्रव क्यों होता ? लिया । पर मंत्री के आने में इतना विलम्ब क्यों हुआ सु.-महाराज, जो में नाम पतलाता तो भी मेरी इस से तुम जाकर देखो तो सही। बात कोन सुनता और सभासद जानते कि यह प्राण गं.-जो आज्ञा (जाता है)। बचाने को झूठी बातें बनाता है और फिर क्षत्री om भारतेन्दु समग्र २९८