पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३३९

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1 -सखी अब तो हमको बिष घूटनो है ।। धीरज नहीं धरता-कर्म के भोग न होते तो यह सखी अब मैं किसके हेतु जीऊंगी - आओ हम | दिन क्यों देखना पड़ता - हाय - जो पिता माता तुम मिल के क्योंकि यह पिछला मिलना है फिर मैं प्राण देकर सन्तान की रक्षा करते हैं उन्हीं पिता माता ने कहां और तुम कहां - सखी जो प्राणप्यारे जीते बचै | मुझे जन्म भर रंडापे का दुख दिया (रोती है) तो उनसे मेरा संदेश कह देना कि मैंने तुम्हारी प्रीति का च.-सखी, अब इन बातों से और भी दु:ख निबाह किया कि अपना प्राण दिया पर मुझे इतना शोच | बढ़ेगा इससे चित्त से यह बातें उतार दे और किसी रह गया कि हाय मेरे हेतु प्राण प्रीतम बांधे गये – पर | भाति धीरज धर के जी को समझा । मेरी इस बात का निबाह करना कि मेरे दु:ख से तुम वि.- सखी, मैं तो समझती हूं पर मन नहीं दुखी न होना – हाय - मेरी छाती बज्र की है कि | समझता - हाय - और जिस का सर्वस नास हो अब भी नहीं फटती (रोती है और मुर्छा खाकर गिरती जाय वह कैसे समझे और कैसे धीरज धरै- हाय ! है) हाय ! प्राण बड़े अघम हैं कि अब भी नहीं निकलते सुलो. .- (उठा कर) सखी इतनी उदास न हो (लम्बी सांस लेती है और रोती है। और रो रो कर प्राण न दे-यद्यपि जो तू कहती है सो सुलो. .-पर एक बात यह भी है कि अभी राजा सब सत्य है पर जब ईश्वर ही फिर जाय तो मेरा तेरा | ने न जाने क्या आज्ञा दीं- बिना कुछ भए इतना क्या बश है ? हाय - बादल से कोई बिजली भी नहीं | दु:ख उचित नहीं, न जानै राजा छोड़ दें गिरती कि हम को यह दु :ख देखना पड़े वि. राजसभा में क्या होगा केवल हमारे धीरज धर सखी धीरज धर । शोकानल में पूर्णाहुति दी जायगी और क्या होगा - वि.-रोकर)) सखी, मन नहीं मानता । हाय -प्राणनाथ इस अभागिनी के हेतु तुम्हें बड़े- हाय – बिसासी विधाता ने क्या दिखा कर क्या बड़े दु:ख भोगने पड़े । दिखाया, हाय-अब मैं क्या करूंगी- और कैसे दिन सुलो. -जो तू कहै तो में छत पर से देबूं कि काढूंगी। सभा में क्या होता है। 'मेलि गरे मृदु बेलि सी बाहिन वि.-जो तेरे जी में आवै और जिस से मेरा भला कौन सी चाहन छाहन डोलिहौं । हो सो कर । कासो सुहास बिलास मुबारक ही के सुलो. •-चपल चल हम देखें तो क्या होता है 1 हुलासन सों हंसि बोलिहौं ।। च.-चल (दोनों जाती हैं) श्रौनन प्याइहौं कौन सुधारस कासों विथा की कथा गढ़ी वि. -अब मैं यहां बैठी बैठी क्या करूंगी और छोलिहौं । मन को कैसे समझाऊंगी। हे भगवान मेरे अपराधों प्यारे बिना ही कहा लखिहीं को क्षमा कर -मैं बड़ी दीन हूं मैंने क्या ऐसा सखियां दुखिया अखियां जब खोलिहौं' ।। अपराध किया है कि तू मुझे दु:ख दे रहा है । नहीं सखी, केवल दु:ख भोगने को जन्मी हूं क्योंकि भगवान का क्या दोष है, सब दोष मेरे भाग्य का है (हाथ आज तक एक भी सुख नहीं मिला – क्या विधाता | जोड़कर) हे दीनानाथ, हे दीनबन्धु, हे नारायण, मुझ की सब उलटी रीति है कि जिस वस्तु से मुझे सुख है | अबला पर दया करो - और जो मैं प्रतिब्रता हूं और उसी को हरण करता है – हाय मैं ने जाना था कि मुझे | जो मैंने सदा निश्छल चित्त से तुम्हारी आराधना की हो मन माना प्रीतम मिला, अब मैं कभी दुखी न हूंगी सो | तो मुझे इस दु:ख से पार करो । आशा आज पूरी हो गई हाय अब मुझे जन्म भर (नेपथ्य में) दु:ख भोगना पड़ा। अरे राजकाज के लोगों ने बड़ा बुरा किया कि बिना सुलो. - सखी, यह सब कर्म के भोग हैं नहीं तो | पहिचाने कांचीपुरी के महाराज गुणसिन्धु के पुत्र तुम राजा की कन्या हौ तुम्हारे तो दु :ख पास न आना | राजकुमार सुन्दर को कारागार में भेज दिया - क्या चाहिए पर क्या करें -सखी तू तो आप बड़ी पण्डित | किसी ने उसे नहीं पहिचाना ? मैं अभी जाकर महाराज है - मैं तुझे क्या समझाऊंगी पर फिर भी कहती हूं| से कहता हूं कि यह तो वही है जिसके बुलाने के हेतु कि धीरज धर । आपने मुझे कांचीपुर भेजा था । वि.- सखी, मैं यद्यपि समझती हूं पर मेरा जी वि.-- (हर्ष से) अरे - यह कौन अमृत की विद्यासुंदर २९७