पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

का बसुभूति मंत्री जो राजकन्या के साथ चले थे वह दोनों किसी उपाय से बच कर समुद्र के किनारे लगे और वहां सैनापति रुमण्वान से जो कौशला नगरी चीतने गया था, मिल के यहाँ आ पहुंचे इन बातों से यद्यपि हमारे स्वामी का सब काम सिद्ध ही होता है तो भी हमारे जी को धीरज नहीं होता । हा ! सेवक का धर्म, बड़ा कठिन है। (कान लगा कर) अरे यह नगरनिवासियों के चाकर की धुन सुन पड़ती है । मृदंग भी कैसा मधुर बज रहा है और उसी के साथ कैसी मीठी मीठी ताने सुनाई देती हैं ऐसा अनुमान होता है अस बसन्तोत्सव में नगरवासियों ऐसा अनुमान है इस बसन्तोत्सव में नगरनिवासियों का कौतुक देखने को महाराज अटारी की ओर जाते हैं 1 ऊपर देखकर - आहा ! महाराज तो अटारी पर आगए । देखो। यद्यपि स्वामिहि के हित कारन मैंने सबै यह काज कियो है। देखहु तो यह भाग की बात सु देव ने आय सहाय दिया है ।। सिद्धहु होइगो संसय नाहिं सदा निहचै मन माह लियो है। तौह कियो अपने चित सों यह सोचि डरै सब काल हियो है ।। याके राज बीच कई विग्रह नहीं है अरु विग्रहरहित कामदेवहू सुहायो है । यह रति मान और वह रतिपति यह प्रजा चित बसे वह जगचित छायो है ।। याको है बसन्तक परमसखा वाहू को बसन्त रितु मित्र यह जगबीच गायो है । आपुनो महोत्सव विलोकिवे को अनुरागी कामदेव मानो बत्सराज बनि आयो है ।। तो घर जाकर अब जो करना है उसकी चिन्ता करूँ (चला जाता है) (नेपथ्य में कुलाहल होता है) इति विष्कम्भक । परदा गिरा ।। १. अथवा यह पाठान्तर । दोहा । रति धर जन चित आयो उत्सव लखन बसन्त । बसत बनि बिन बिग्रह बत्सराज मित्र रितु कन्त ।। भारतेन्दु समग्र ३०२