पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३४५

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पाखंड विडंबन पं. कृष्ण मिश्र के प्रबोध चन्द्रोदय नाटक के तीसरे अंक का यह अनुवाद है बाबू ब्रजरत्नदास इसे अपनी चाल का पहला नाटक मानते हैं। सम्भवतः भक्ति की पराकाष्ठा और वैष्णवधर्म की विशिष्टता स्थापित करने की नीयत से भारतेन्दु ने इसे अनूदित किया। यह नाटक श्री छन्नूलाल द्वारा बनारस प्रिंटिंग प्रेस में सं. १९२९ में छपा। सं० । पाखण्ड विडम्बन ।। अर्थात प्रबोध चन्द्रोदय नाटक का तीसरा अंक श्री मन्महाकवि कृष्ण मिश्र का बनाया तथा श्रीहरिश्चन्द्रजी ने हिन्दी भाषा में हास्य रसिकों के आनन्दार्श । अनुवाद किया।। Benares : Printed at the Benaras Printing Press by Chhannu Lal मेरे प्यारे! भला इस्से पाखंड का विडम्बन क्या होना है यहाँ तो तुम्हारे सिवा सभी पाखंड हैं क्या हिन्दू क्या जैन क्योंकि मैं पूछता हूँ कि बिना तुमको पाए मत की प्रवृत्ति ही क्यों है तुम्है छोड़ कर मेरे जान सभी झूठे हैं चाहे ईश्वर हो चाहे ब्रह्म चाहे बेद हो चाहे इंजील तो इस्ले यह शंका न करना कि मैंने किसी मत की निन्दा के हेतु यह उलथा किया है क्योंकि सब तुम्हारा है इस नाते तो सभी अच्छा है और तुमसे किसी से संम्बध नहीं इस नाते सभी बुरे हैं। इन बातों को जाने दो। क्योंजी ऐसे निठुर क्यों हो गये हो ? क्या तुम वह नहीं हौ ? इतने दिन पीछे मिलना उस पर भी आँखें निगोड़ी प्यासी ही रहे; मुँह न छिपाओ देखौ यह कैसा सुन्दर नाटक का तमाशा तुमको दिखाता हूँ क्योंकि जब तुम अपने नेत्रों को स्थिर करके यह तमाशा देखने लगोगे तो मैं उतना ही अवसर पा कर तुम्हारी भोली छबि चुपचाप देख लूँगा। फाल्गुन सुदी १४ सं. १९२९, तुम्हारा हरिश्चन्द्र॥ पाखंड विडंबन ३०३