पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९९

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करायहैं।। सकता है! SEN 'उठे, इससे एक घड़ी मर ठहरो, अवसर मिलता है तो क्यों हटाते हो? अमात्य राक्षस के सिर में पीड़ा मैं निवेदन किए देता हूँ। सुनकर कुमार मलयकेतु उसको देखने को इधर ही परदा उठता है और सोने के बिछौने पर चिंता में आते है ! (जाता है) भरा राक्षस और शटकदास दिखाई पड़ते हैं) (भागुरायण और कंचुकी के साथ मलयकेतु आता है) राक्षस (आप ही आप) मलयकेतु- (लंबी साँस लेकर – आप ही कारज उलटो होत है कुटिल नीति के जोर । आप) हा! देखो पिता को मरे आज दस महीने और का कीजै सोचत यही जगि होय है भोर ।। व्यर्थ वीरता का अभिमान करके अब तक हम लोगों ने और भी कुछ भी नहीं किया, वरन तर्पण करना भी छोड़ दिया । आरंभ पहिले सोचि रचना वेश की करि लावहीं । या क्या हुआ, मैंने तो पहिले यही प्रतिज्ञा की है कि इक बात में गर्भित बहुत फल गूढ भेद दिखावहीं ।। कर वलय उर ताड़त गिरे, आँचरहु की सुधि नहिं परी। कारन अकारन सोचि फैली क्रियन को सकुचावहीं । मिलि करहिं आरतनाद हाहा, कलक खुलि रज सो भरी। जे करहिं' नाटक बहुत दुख हम सरिस तेऊ पावहीं ।। जो शोक सों भई भातुगन की दशा सो उलटायहै।। और भी यह दुष्ट ब्राह्मण चाणक्य - करि रिपु जुवतिगन की सोई गति पितहिं तृप्त दौवा.- (प्रवेश कर) जय जय । राक्षस-- किसी भांति मिलाया या पकड़ा जा और भी- रन मरि पितु ढिग जात हम बीरन की गति पाय । दौवा. अमात्य - के माता दृग-जल धरत रिपु-जवती मुख लाय ।। राक्षस- बाएँ नेत्र के फड़कने का अपशकुन (प्रकाश) अजी जाजले ! सब राजा लोगो से कहो कि देखकर आप ही आप) 'ब्राह्मण चाणक्य जय जय' और "मैं बिना कहे सुने राक्षस मंत्री के पास अकेला जाकर 'पकड़ा जा सकता है अमात्य' यह उलटी बात हुई और उनके प्रसन्न करूँगा. इससे वे सब लोग उधर ही उसी समय असगुन भी हुआ । तो भी क्या हुआ, उद्यम ठहरें!" नहीं छोड़ेंगे । (प्रकाश) भद्र ! क्या कहता है ? कंचुकी-जो आज्ञा ! (घूमते-घूमते नेपथ्य की अमात्य ! पटने से करभक आया है सो ओर देखकर) अजी राजा लोग ! सुनो कुमार की आज्ञा आप से मिला चाहता है। है कि मेरे साथ कोई न चले (देखकर आनंद से) महाराव राक्षस-अभी लाओ। कुमार ! आप देखिए । आपकी आज्ञा सुनते ही सब दौवा.- जो आज्ञा । (करभक के पास जाकर, राजा रुक गए उसको संग ले आकर) भद्र! मंत्रीजी वह बैठे हैं, उधर अति चपल जे रथ चलत, ते सुनि चित्र से तुरतहि भए। जाओ। कर.- (मंत्री को देखकर) जय हो, जय हो । जे खुरन खोदत नभ-पथहि, राक्षस-अभी करभक ! आओ आओ, अच्छे ते बाजिगन झुकि रुकि गए । हो?-बैठो। जे रहे धावत, ठिठकि ते कर.-जो आज्ञा । (पृवी पर बैठ जाता है) गज मूक घआ सह सधे । राक्षस- (आप ही आप) अरे ! मैंने इसको | मरजाद तुव नहिं तजहिं नृपगण जलघि से मानहुँ किस काम का भेद लेने को भेजा था यह भूला जाता है । बंधे ।। (चिंता करता है) मलय.- अजी जाजले ! तुम भी सब लोगों को (बेंत हाथ में लेकर एक पुरुष आता है) लेकर जाओ, एक केवल भागुरायण मेरे संग रहे । पुरुष- हटे रहना, बचे रहना - अबी देर कंचुकी-जो आज्ञा । रहो - दूर रहो, क्या नहीं देखते ? (सबको लेकर जाता है) नृप द्विजादि जिन नरन को मंगल रूप प्रकास । मलय.-मित्र भागुरायण! जब में यहाँ आता ते न नीच मुखहू लखहि, कैसो पास निवास ।। था तो भद्रभट प्रभृति लोगों ने मुझसे निवेदन किया कि (आकाश की ओर देखकर) अजी क्या कहा, कि 'हम राक्षस मंत्री के द्वारा कुमार के पास नहीं रहा। दौवा. (जाता है) १. प्राचीन काल में आचार्य, राजा आदि नीचों को नहीं देचते थे। मुद्रा राक्षस ३५५