पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/३९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

होगा। आवें । मेरो दल के लोग को दीनों तुरत हराय ।। सहजहि बैहै राज हम निज बल बुद्धि उपाय ।। मोहें परिजन रीति सों जाके सब बिनु त्रास । सो हम तुमही कहूं छलन कियो क्रोध परकास । जो मो पै निज लोकहू आनहि नहिं विश्वास ।। तुमरोई करिहै उलटि यह तुव भेद बिनास ।। चाणक्य- (हंसकर) वृषल ! राक्षस ने वह (क्रोध प्रकट करता हुआ चला जाता है) सब किया ? चंद्र- आर्य वैहीनर! 'चाणक्य का अनादर चंद्र-हाँ! हाँ! अमात्य राक्षस ने यह सब करके आज से चंद्रगुप्त सब काम-काज आप ही किया । सम्हालेंगे," यह लोगों से कह दो । चाणक्य-तो हमने जाना, जिस तरह नंद का कंचुकी- (आप ही आप) अरे ! आज महाराज नाश करके तुम राजा हुए वैसे ही अब मलयकेतु राजा ने चाणक्य के पहले आर्य शब्द नहीं कहा! क्यों ? क्या सचमुच अधिकार छीन लिया ? वा इसमें महाराज चंद्र-आर्य ! यह उपालभ आपको नहीं शोभा का क्या दोष है! देता, करनेवाला सब दूसरा है। सचिव-दोष सों होत है नृपहु बुरे ततकाल । चाणक्य-रे कृतघ्न । हाथीवान-प्रमाद सों गज कहवावत व्याल ।। अतिहि क्रोध करि खोलिकै सिखा प्रतिज्ञा कीन । चंद्र- क्यों जी ? क्या सोच रहे हो? सो सब देखत भुव करी नव नृप नंद विहीन ।। कंचुकी- यही कि महाराज को महाराज शब्द घिरी स्वान अरु गीध सों भय उपजावनिहारि । यथार्थ शोभा देता है। जारि नंदहू नहिं भई सांत मसान दवारि ।। चंद्र- (आप ही आप) इन्हीं लोगों के घोखा चंद्र -यह सब किसी दूसरे ने किया । खाने से आर्य का काम होगा । (प्रकट) शोणोत्तरे! इस चाणक्य-किसने? सूखी कलह से हमारा सिर दुखने लगा, इससे शयनगृह चंद्र.-नन्दकुल के द्वेषी दैव ने । का मार्ग दिखलाओ। चाणक्य-दैव तो मूर्ख लोग मानते हैं। प्रतिहारी-इधर आवें, महाराज, इधर चंद्र.- और विद्वान् लोग भी यद्वा तदा करते हैं । चाणक्य- (क्रोध नाट्य करके) अरे वृषल ! चंद्र- (उठकर चलता हुआ आप ही आप) क्या नौकरों की तरह मुझ पर आज्ञा चलाता 1 गुरु आयसु छल सों कलह करिडू जीय डराय । खुली सिखाहूँ बाँधिबे चंचल मे पुनि हाथ । किमि नर गुरुजन सों लरहि, यहै सोच जिय हाय ।। (क्रोध से पैर पृथ्वी पर पटक कर) (सब जाते हैं -जवनिका गिरती है 1) घोर प्रतिज्ञा पुनि चरन करन चहत कर साथ ।। नंद नसे सो निरुज ह्वै तू फूल्यो गरबाय । सो अभिमान मिटाइही तुरतहिं लेहि गिराय ।। चतुर्थ अंक चंद्र.- (घबड़ाकर) अरे ! क्या आर्य को सचमुच (स्थान - मंत्री राक्षस के घर के बाहर का प्रात ।) क्रोध आ गया ! (करभक घबड़ाया हुआ आता है) फर फर फरकत अधर फूट, भए नयन जुग लाल । करभक-अहाहा हा! अहाहा हा ! चढ़ी जाती भौंहें कुटिल, स्वाँस तजत जिमि व्याल ।। अतिसय दुरगम ठाम मैं सत जोजन सों दूर । मनहुँ अचानक रुद्रदृग खुल्यौ त्रितिय दिखरात । कौन जात है धाइ बिनु प्रभु निदेस भरपूर ।। (आवेग सहित) अब राक्षस मंत्री के घर चलूं। (थका सा धरनी धार्यो बिनु घसे हा हा किमि पदधात ।। घूमकर) । अरे कोई चौकीदार है ! स्वामी राक्षस मंत्री चाणक्य- (नकली क्रोध रोककर) तो से जाकर कहे कि 'करभक काम पूरा करके पटने से वृषल ! इस कोरी बकवाद से क्या लाभ है ! जो राक्षस दौड़ा आता है। चतुर है तो यह शस्त्र उसी को दे । (शस्त्र फेंक और (दौवारिक आता है) उठकर -आप ही आप) ह ह ह ! 'राक्षस'! यही दौवारिक-अजी : चिल्लाओ मत, स्वामी तुमने चाणक्य को जीतने का उपाय किया । राक्षस मंत्री को राजकाज सोचते-सोचते सर में ऐसी तुम जानौ चाक्यक्य सों नृप चयहि लखाय । बिथा हो गई है कि अब तक सोने के बिछौने से नहीं 44 भारतन्दुसमग्र ३५४