पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४१२

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देखकर अपने गले में फांसी लगाना चाहता है) पुरुष- राम राम ! महाजन लोगों की यह चाल' राक्षस- (देखकर आप ही आप) अरे यह नहीं ; विशेष करके साधु जिष्णुदास की । फाँसी क्यों लगाता है ? निश्चय कोई हमारा सा दुखिया राक्षस-तौ कहुँ मित्रहि को दुख वाहू के है। जो हो, पूछे तो सही । (प्रकाश) भद्र, यह क्या नाश के हेतु तुम्हारे समान है ? करते हो? पुरुष- हाँ, आर्य । पुरुष- (रोकर) मित्रों के दु:ख से दुखी होकर राक्षस-(घबड़ाकर आप ही आप) अरे, इसके हमारे ऐसे मंदभाग्यों का जो कर्त्तव्य है। मित्र का प्रिय मित्र तो चंदनदास ही है और यह कहता है राक्षस-(आप ही आप) पहले ही कहा था, ! सुहृदविनाश ही उसके विनाश का हेतु है इससे मित्र के हमारा सा दुखिया है । (प्रकाश) भद्र, जो अति गुप्त वा स्नेह से मेरा चित्त बहुत ही घबड़ाता है । (प्रकाश) किसी विशेष कार्य की बात न हो तो हमसे कहो कि तुम भद्र ! तुम्हारे मिन्न का चरित्र हम सविस्तर सुना चाहते क्यों प्राण त्याग करते हो? पुरुष- आर्य ! न तो गुप्त ही है न कोई बड़े पुरुष- आर्य ! अब मैं किसी प्रकार से मरने में काम की बात है ; परंतु मित्र के दु:ख से मैं क्षण भर भी | विलंब नहीं कर सकता । ठहर नहीं सकता। राक्षस -यह वृत्तांत तो अवश्य सुनने के योग्य राक्षस- (आप ही आप दु:ख से) मित्र की | है, इससे कहो । विपत्ति में हम पराए लोगों की भांति उदासीन होकर जो पुरुष- क्या करें? आप हठ करते हैं तो देर करते हैं मानों उसमें शीघ्रता करने की यह अपना सुनिए। दुख कहने के बहाने शिक्षा देता है । (प्रकाश) भद्र ! राक्षस-हाँ! जी लगाकर सुनते हैं, कहो । जो रहस्य नहीं है तो हम सुना चाहते हैं कि तुम्हारे पुरुष- आपने सुना ही होगा कि इस नगर में दु:ख का क्या कारण है? प्रसिद्ध जौहरी सेठ चन्दनदास हैं। पुरुष-आपको इसमें बड़ा ही हठ है तो कहना राक्षस-(दु:ख से आप ही आप) दैव ने हमारे पड़ा । इस नगर में जिष्णुदास नामक एक महाजन है। विनाश का द्वार अब खोल दिया । हृदय ! स्थिर हो राक्षस-(आप ही आप) वह तो चंदनदास अभी न जाने क्या क्या कष्ट तुमको सुनना होगा। का बड़ा मित्र है। (प्रकाश) भद्र ! हमने भी सुना है कि यह साधु अत्यंत पुरुष-वह हमारा प्यारा मित्र है मित्रवत्सल हैं। राक्षस-(आप ही आप) कहता है कि वह पुरुष- यह जिष्णुदास के अत्यंत मित्र है 1 हमारा प्यारा मित्र है। इस अति निकट संबंध से राक्षल- (आप ही आप) यह सब हृदय के हेतु इसको चंदनदास का वृत्तांत ज्ञात होगा । शोक का वज्रपात है । (प्रकाश) हां, आगे । पुरुष- (रोकर) सो दीन जनों को धन देकर पुरुष- सो जिष्णुदास ने मित्र की भाँति वह अब अग्निप्रवेश करने जाता है । यह सुनकर हम चंद्रगुप्त से बहुत विनय किया । यहाँ आए हैं कि इस दु :खवार्ता सुनने के पूर्व ही अपने पुरुष-क्या क्या ? प्राण दे दें। पुरुष- कि देव ! हमारे घर में जो कुछ राक्षस-- भद्र! तुम्हारे मित्र के अग्निप्रवेश का कुटुंबपालन का द्रव्य है आप सब ले लें, पर हमारे मित्र कारण क्या है? नंदनदास को छोड़ दे। कै तेहि रोग असाध्य भयो राक्षस-- (आप ही आप) वाह जिष्णुदास ! तुम कोऊ जाको न औषध नाहिं निदान है? धन्य हो । तुमने मित्रस्नेह का निर्वाह किया । पुरुष-नहीं आर्य ! जा धन के हित नारि तजै राक्षस-कै विष अग्निहु सो बढ़ि के पति पूत तजै पितु सीलहिं खोई । नृप कोप महा फाँस त्यागत प्रान है ? | भाई सों भाई लरै रिपु से पुरुष- राम राम ! चंद्रगुप्त के राज्य में लोगों पुनि मित्रता मित्र तजै दुख जोई ।। को प्राणहिंसा का भय कहाँ ? ता धन बनिया हवै गिन्यो राक्षस- कै कोउ सुंदरी पै जिय देत न दियो दुख मीत सों आरत होई लग्यो हिय माहि बियोग को बान है? स्वारथ अर्थ तुम्हारोई है तुमरे भारतेन्दु समग्र ३६८