पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४४७

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रोहिताश्व नहीं तो मैं ही जी के क्या करूंगी । (छाती ह.- (दोनों कानों पर हाथ रखकर) नारायण पीटकर) हाय प्रान तुम भी क्यों नहीं निकले । (हाय मैं | नारायण ! महाभागे ऐसा मत कहो: शास्त्र, ब्राहमण ऐसी स्वारथी हूं कि आत्महत्या के नरक के भय से अब और देवता त्रिकाल में सत्य हैं। ऐसा कहोगी तो भी अपने को नहीं मार डालती । नहीं नहीं अब मैं न प्रायश्चित्त होगा । अपना धर्म बिचारो । लाओ मृतकंबल जीऊंगी। या तो इस पेड़ में फांसी लगाकर मर हमें दो और अपना काम आरंभ करो (हाथ फैलाता है) जाऊगी या गंगा में कूद पड़गी (उन्मत्त की भांति शै.- (महाराज हरिश्चन्द्र के हाथ में चक्रवर्ती उठकर दौड़ना चाहती है)। का चिन्ह देखकर और कुछ स्वर कुछ आकृति से अपने ह.- (आड़ में से) पति को पहचान कर) हा आर्यपुत्र इतने दिन तक कहाँ तनहिं बेचि दासी कहवाई । छिपे थे ! देखो अपने गोद के खेलाए दुलारे पुत्र की मरत स्वामि आयसु बिन पाई दशा । तुम्हारा प्यारा रोहिताश्व देखो अब अनाथ की करु न अधर्म सोचु जिय माहीं । भांति मसान में पड़ा है (रोती है।) 'पराधीन सपने सुख नाहीं ।।' ह.-प्रिये धीरज धरो। यह रोने का समय नहीं शै.- (चौकन्नी होकर) अहा ! यह किसने इस | है । देखो सबेरा हुआ चाहता है, ऐसा न हो कि कोई कठिन समय में धर्म का उपदेश किया । सच है मैं अब | आजाय और हम लोगों की जान ले, और एक लज्जा इस देह की कौन हूं जो मर सकूँ । हा देव ! मुझसे यह मात्र बच गई है वह भी जाय । चलो कलेजे पर सिल भी न देखा गया कि मैं मरकर भी सुख पाऊ । (कुछ रखकर अब रोहिताश्व की क्रिया करो और आधा धीरज धरके) तो चलूं छाती पर वन धरके अब कंबल हमको दो। लोकरीति करू । रोती और लकड़ी चुनकर चिता शै.- (रोती हुई) नाथ ! मेरे पास तो एक भी बनाती हुई) हाय ! जिन हाथों से ठोंक ठोक कर रोज कपड़ा नहीं था, अपना आंचल फाड़कर इसे लपेट लाई सुलाती थी उन्हीं हाथों से आज चिता पर कैसे है, उसमें से भी जो आधा दूंगी तो यह खुला ही रह रक्खूगी, जिसके मुंह में छाला पड़ने के भय से कभी जायगा । हाय चक्रवर्ती के पुत्र को आज कफन नहीं मैंने गरम दूध भी नहीं पिलाया उसे - (बहुत ही रोती | मिलता ! (बहुत रोती है) ह.- (बलपूर्वक आंसुओं को रोककर और बहुत ह.- धन्य देवी आखिर तो चंद्र सूर्यकुल की स्त्री धीरज धर कर) प्यारी रोओ मत । ऐसे ही समय में तो हो तुम न धीरज करोगी तो और कौन करेगा। धीरज और धरम रखना काम है । मैं जिस का दास हूँ शै.- (चिता बनाकर पुत्र के पास आकर उठाना उस की आज्ञा है कि बिना आधा कफन लिए क्रिया मत चाहती है और रोती है)। करने दो । इससे मैं यदि अपनी स्त्री और अपना पुत्र ह.- तो अब चलें उस से आधा कफन मांगे समझकर तुम से इसका आधा कफन न लूं तो बड़ा (आगे बढ़कर और बलपूर्वक आंसुओं को रोककर अधर्म हो । जिस हरिश्चन्द्र ने उदय से अस्त तक की शैव्या से) महाभागे! स्मशान पति की आज्ञा है कि पृथ्वी के लिए धर्म न छोड़ा उसका धर्म आध गज कपड़े आधा कफन दिए बिना कोई मुरदा फूंकने न पावे सो के वास्ते मत छुड़ाओ और कफन से जल्दी आधा कपड़ा तुम भी पहले हमें कपड़ा दे लो तब क्रिया करो (कफन फाड़ दे । देखो सबेरा हुआ चाहता है ऐसा न हो कि मांगने को हाथ फैलता है, आकाश से पुष्पवृष्टि होती कुलगुरू भगवान सूर्य अपने वंश की यह दुर्दशा देखकर है)। चित में उदास हो । (हाथ फैलाता है) शै.- (रोती हुई) नाथ जो आज्ञा) । (रोहिताश्व अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलं । त्वया राजन का मृतकंबल फाड़ना चाहती है कि रंगभूमि की पृथ्वी हरिश्चन्द्र सब लोकोत्तर कृतं । हिलती है, तोप छूटने का सा बड़ा शब्द और बिजली का (दोनो आश्चर्य से ऊपर देखते हैं) सा उजाला होता है । नेपथ्य में बाजे की और बस धन्य शै.- हाय ! इस कुसमय में आर्यपुत्र की यह और जय २ की ध्वनि होती है, फूल बरसते हैं और कौन स्तुति करता है ?वा इस स्तुति ही से क्या है, भगवान् नारायण प्रकट होकर राजा हरिश्चन्द्र का हाथ शास्त्र सब असत्य हैं नहीं तो आर्यपुत्र से धर्मी की यह | पकड़ लेते हैं ।) गति हो! यह केवल देवताओं और ब्राह्मणों का पाषंड भ.- बस महाराज बस (धर्म और सत्य सब की| परमावधि हो गई । देखो तुम्हारे पुण्य भय से पृथ्वी (नेपथ्य मे) ORDEM सत्य हरिश्चन्द्र ४०३