पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८०

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है - एक सुखी एक दुखी । हम अच्छे न सुखी न मुंह बन्द करके अनंगसेना, कलिंगसेना, बसन्तसेना' दुखी, न संयोगी न वियोगी । और विनमसेना, नामक चार सखियों को नंगी तलवार (नेपथ्य में मैना बोलती है) लेकर पूरब में. अनंगलेखा, चन्दनलेखा, चित्रलेखा, तो तेरा सिर टूट बेल सा क्यों नहीं गिर पड़ता ? मृगांकलेखा, और विभ्रमलेखा इन पांच सखियों को राजा-मित्र खिलवाडिन मैना क्या कहती है, धनुषदेकर दक्षिण में, और कुन्दनमाला, चन्दनमाला सुनो। कुबलमाला, कांचनमाला, वकुलमाला, मंगलमाला विदू. (क्रोध से) अच्छा दुष्ट दासी देख अभी और माणिक्यमाला इन सात सखियों को चोखे भाले तुझ को पकड़ कर मरोड़ डालते हैं। देकर पश्चिम दरवाजे पर, और अनंगकेलि, कर्पूरकेलि (नेपथ्य में मैना बोलती है) कंदर्पकेलि और सुंदरकेलि, इन चार सखियों को खंग हां हां, निपूते जो हमैं पर न होते तू सब करता । देकर उत्तर की ओर पहरे के वास्ते रक्खा है । और भी राजा- (देख कर) क्य मैना उड़ गई? हजारों हथियारबन्द सखी चारों ओर फिरा करती हैं, (विदूषक से) कामी जनों की प्यारी इस गरमी की ऋतु और मदिरावती, केलिवती, करलोलवती, तरंगवती में जब निशारूपी मैना जल्दी से उड़ जाती है तो यह और तांबूलवती ये पांच सोने की छड़ी हाथ में लेकर मैना क्यों न उडै । क्यों न हो, वा संयोगियों को तो उस सेना की रक्षा करती हैं। ग्रीष्म भी सुखद ही है । दो पहर तक ठण्डे चन्दन का राजा-वाहरे ठाट बाट ! महारानी सचमुच लेप, तीसरे पहर महीन गीले कपड़े, फुहारे, खसखाने अपने महारानीपन पर आ गई। और सांझ को जल बिहार और हिम से ठण्डी की हुई विदू.-मित्र, महारानी के यहाँ से सारगिका मदिरा और पिछली रात ठण्डी हवा में बिहार इत्यादि नाम की सखी कुछ कहने को आती है। इस ऋतु में भी सुख के सभी साज हैं, पर जो (सारगिका आती है) करनेवाला हो। सारंगिका-महाराज की जय हो । महाराज! विदू.

- ऐसा नहीं, मुंह भर के पान, पानी से महारानी ने निवेदन किया है कि आज बटसावित्री का

फूली हुई सुपारी और कपूर की धूर और मीठा २ भोजन उत्सव होगा सो महाराज छत पर से देखें। ही गरमी में सुखद होता है। राजा-महारानी की जो आज्ञा । राजा-छि :, इस गरमी में भी तुझे पान और (सारंगिका जाती है) मीठे भोजन की पड़ी है । गरमी में तो वायु के संयोग से (राजा और विदूषक छत पर चढ़ना नाट्य करते हैं) जल, हिम में रखने से मदिरा, चन्दनलेप करने से स्त्री, विदूषक- देखिए, मोतियों के गहने से लदी सुन्दर कण्ड पाकर फूल और पंचम स्वर से पूरित हो हुई नृत्य में वस्त्र फहराने वाली स्त्रियां हीरे के नगीने से कर वंशी यही पाच वस्तु ठण्डी हैं । तथा सिरीस के बलकरणों में कैसा परस्पर खेल रही है, इधर विचित्र फूल के गहने, बेल की चोटी. मोतियों के हार, चम्पे की प्रबंध से घूमनेवाली, फिरकी की भांति नाचनेवाली और चम्पाकली, नेवारी के गजरे, जल भरी कुमुद की बिना सम पर पांव रखनेवाली स्त्रियां कैसा परस्पर नाच रही डोरे की माला और हाथ में कमलनाल के कंकण यही हैं, कोई मंडल बांधकर पंक्ति से, कोई दूसरी का हाथ सुन्दरियों को रत्नाभरण के बदले योग्य श्रृंगार हैं । पकड़कर और कोई अकेली ही नाचती हैं । नृत्य के विदू. --- हम तो यही कहेंगे कि दो पहर को प्रमश्वास से कुचों पर हार कम्पित होकर देखनेवालों चन्दन लगाए, साँझ को नहाए मन्दवायु से कान का के नेत्र और मन को अपनी ओर बुलाते हैं, सब देश की फूल हिलाने वाली स्त्री ही गरमी में सुखद होती है । स्त्रियों के स्वांग बन कर कुछ स्त्रियां अलग ही कौतुक राजा-(याद करके) देखो, जिन के प्यारे पास कर रही हैं । यह देखिये जिस ने भीलनी का स्वाग हैं उनको गरमी के बड़े बड़े दिन एक क्षण से बीतते हैं, लिया है वह कैसी निर्लज्ज और मत्तचेष्ठा करती है ? पर जो अपने प्यारे से दूर पड़े हैं उन को तो ये दिन वैसे ही जो गंवारिन बनी है वह अपनी सहज सीधी और पहाड़ से भी बड़े हो जाते हैं, (विदूषक से) मित्र, कुछ भोली चितवन से अलग चित चुराती है ; कोई गाती है, उसी की बात कहो। कोई हंसती है, कोई नकल करती है सब अपने २ रंग विदू.

- हां मित्र, सुनो, बहुत अच्छी २ बात

में मस्त हैं। कहेंगे । जब से कर्पूरमंजरी को गुप्त घर की सुरंग के (सारंगिका आती है) दरवाजे पर महारानी ने देख लिया है तब से सुरंग का सार.- (आप ही आप) अहा ! महाराज तो छत भारतेन्दु समग्र ४३६