पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५००

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छिपें छिपे सुनती। चक्रवाक कहु बसत कहुं बक ध्यान लगावत ।। अब तो सभी अंग ब्याकुल हो रहे हैं। सुक पिक जल कहुं पियत कई भ्रमरावलि गावत ।। चं. (ललिता की बात सुनी अनसुनी करके कहुं तट पर नाचत मोर बहु रोर बिबिध पच्छी करत। बायें अंग का फरकना देखकर आप ही आप) अरे यह जलपान न्हान करि सुख भरे तट सोभा सब जिय असमय में अच्छा सगुन क्यों होता है । (कुछ ठहर धरत ।। कर) हाय आशा भी क्या ही बुरी वस्तु है और प्रेम भी कहं बालुका बिमल सकल कोमल बहु छाई । मनुष्य को कैसा अन्धा कर देता है । भला वह कहां उज्जल झलकत रजत सिढ़ी मनु सरस सुहाई ।। और मैं कहां, पर जी इसी भरोसे पर फूला जाता है कि पिय के आगम हेत पांवड़े मनहुँ बिछाये । अच्छा सगुन हुआ है तो जरूर आवैगे (हंसकर) रत्नरासि करि चूर कूल मैं मनु बगराये । उनको हमारी इस वखत फिकिर होगी । मान मनु मुक्त मांग सोभित भरी, न मान मैं तेरा मिहमान मन को अपने ही मतलब की श्यामनीर चिकरन परसि । सूझती है । मेरो पिय मोहि बात न पूछे तऊ सोहागिन सतगुन छायो कै तीर मैं, नाम (लम्बी सांस लेकर) हा ! देखो प्रेम की गति ! यह ब्रज निवास लखि हिय हरसि । कभी आशा नहीं छोड़ती जिसको आप चाहो वह चाहे (चन्द्रावली अचानक आती है) भूठ मूठ भी बात न पूछ पर अपने जी को यह भरोसा चं.- वाह वाहरी बैहना आजु तो बड़ी कविता रहता है कि वे भी जरूर इतना ही चाहते होंगे (कलेजे करी । कबिताई की मोट की मोट खोलि दीनी । मैं सब पर हाथ रखकर) रहो रहो क्यों उमगे आते हो धीरज धरो, वे कुछ दीवार में से थोड़े ही निकल आवैगे । (दबे पांव से योगिन आकर एक कोने में खड़ी हो जाती जो.- (आप ही आप) होगा प्यारी ऐसा ही है) होगा । प्यारी मैं तो यहीं हूं। यह मेरा ही कलेजा है ल.-भलो भलो बीर तोहि कबिता सुनिबे को कि अंतर्यामी कहला कर भी अपने लोगों से मिलने में सुधि तो जाई हमारे इतनोई बहुत है। इतनी देर लगती है। (प्रगट सामने बढ़कर) चं.- (सुनते ही स्मरण पूर्वक लम्बी सांस अलख! अलख! लेकर) (दोनों आदर करके बैठाती हैं) सखीरी क्यों सुधि मोहि दिवाई । ल.- हमारे बड़े भाग जो आपुसी महात्मा के हौं अपने गृह कारज भूली भूलि रही बिलमाई ।। दर्शन भये । फेर वहै मन भयो जात अब मरिहौं जिय अकुलाई । चं.- (आप ही आप) न जानें क्यों इस योगिन हौं तबही लौं जगत काज की जब लौं रहौं भुलाई ।। की और मेरा मन आप से आप खिंचा जाता है। जो. ल.-चल जान दे दूसरी बात कर । भला हम अतीतन को दरसत कहा योहों जो.- आप ही आप) निस्सन्देह इसका प्रेम घर घर डोलत फिरें। पक्का है, देखो मेरी सुधि आते हो इसके कपोलों पर ल.-कहां तुम्हारो देस है। कैसी एक साथ जरदी दौड़ गई । नेत्रों में आंसुओं का जो.-प्रम नगर प्रिय गांव । प्रवाह उमग आया । मुंह सूख कर छोटासा हो गया । ल.- कहा गुरू कहि बोलहीं । हाय ! एकही पल में यह तो कुछ की कुछ हो गई । अरे जो.- प्रेमी मेरो नांव ।। इसकी तो यही गति है। जो लियो केहि कारनै । छरीसी छकीसी जड़ा मईसी जकीसी घर जो.-अपने पिय के काज । हारीसी बिकीसी सो तो सबही घरी रहै। ल. मंत्र कौन? बोले तें न बोले दृग खोले नाहि डोले बैठी जो.-पियनामइक । एकटक देखै सो खिलौनासी धरी रहै ।। कहा तज्यो? हरीचन्द औरो घबरात समुझायें हाय जो. -जगलाज । हिचकि हिचकी रोवे जीवति भरी रहे ।। ल.-आसन कित । याद आयें सखिन रोवावै दुख कहि कहि जो. जितही रमे । तौलौं सुख पावे जौलौ मुरछि परी रहै । ल.-पन्थ कौन । अब तो मुझ से रहा नहीं जाता । इससे मिलने को जो. अनुराग। भारतेन्दु समग्र ४५६