पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५६४

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शैलाक्ष-मेरा किया मेरे सिर पर । मैं राजद्वार योग्य न्यायी हैं, आप कानून से परिचित हैं और उसके से अपने तमस्सुक के अनुसार दंड दिला पाने की तात्पर्य को भी ठीक समझते हैं, तो मैं आपको उसी की प्रार्थना करता हूँ। शपथ देता हूँ जिसके आप पूरे आधार हैं कि आप आज्ञा पुरश्री -- क्या वह रुपया चुका देने की क्षमता | सुनाने में विलंब न करें । मैं अपने प्राण की सौगद नहीं रखता। खाकर कहता हूँ कि मनुष्य की जिह्वा में इतना सामर्थ्य बसंत- हाँ, मैं राजद्वार में उनकी संती अभी नहीं कि मेरा मनोरथ फेरे । मुझको सिवाय तमस्सुक दूना देने को उपस्थित हूँ । यदि इससे भी उसका पेट न के प्रणों के और किसी बात से क्या प्रयोजन । भरे तो मैं उस जमा का दस गुना दूंगा और यदि न दे अनंत-मैं भी चित्त से चाहता हूँ कि न्यायकर्ता सकूँ तो दंड में अपना सिर अर्पण करूंगा । यदि इस आज्ञा सुना दे। पर भी वह न माने तो स्पष्ट है कि शत्रुता के आगे धर्म पुरश्री- तो बस आपको छाती खोलकर प्रस्तुत की दाल नहीं गलती । मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप रहना चाहिए। अपने निज अधिकार से इस बार कानून का प्रतिबंध शैलाक्ष-- वाहरे योग्यता ! वाह रे न्याय ! छोड़ दीजिए । एक बड़े भारी उपकार की अपेक्षा में आहा ! क्या कहना है! थोड़ी सी अनीति स्वीकार कीजिए और हे मंडलेश्वर, पुरश्री-- क्योंकि कानून का अभिप्राय यही है अत्याचारी पिशाच की बुराई को रोकिए । कि प्रतिज्ञा भंग करने का दंड तमस्सुक के प्रणानुसार (मंडलेश्वर से) सब व्यवस्था में दिया जाना चाहिए, तो वह इस पुरधी -- ऐसा न होना चाहिए वंशनगर के अवस्था में भी उचित है । कानून के अनुसार किसी को अधिकार नहीं है कि नीति शैलाक्ष- बहुत ठीक, क्या कहना है, न्याय- को रोक सके । यह विचार दृष्टांत की भांति पर लिखा कर्ता को ऐसा ही बुद्धिमान और न्यायी होना चाहिए ! जायगा और बहुत सी त्रुटियाँ इसके कारण राजा के यह अवस्था और यह बुद्धि । कामों में आ पड़ेंगी । यह कदापि नहीं हो सकता । पुरश्री -अब आप अपनी छाती खोल दीजिए। शैलाक्ष- वाह वाह मानो महात्मा विक्रम आप शैलाक्ष जी हाँ छाती ही, यही तमस्सुक में ही न्याय के लिए उतर कर आए हैं। वास्तव में | लिखा है, है न मेरे सुजन न्यायकत्ता, हृदय के समीप ये आपको विक्रम ही कहना चाहिए । ऐ युवा बुद्धिमान | ही शब्द लिखे हैं । न्यायकर्ता मैं नहीं कह सकता कि मैं चित्त से आपका पुरश्री- ऐसा ही है, परन्तु बताओ कि मांस कितना समादर करता हूँ। तोलने के लिये तराजू रक्खे है ? पुरश्री-कृपाकर, नेक मुझे तमस्सुक तो देखने शैलाक्ष- मैंने उन्हें ला रक्खा है । दो। पुरश्री- शैलाक्ष, अपनी ओर से कोई जर्राह भी शैलाक्ष-लीजिए सुप्रतिष्ठ वकील महाशय बुरा रक्खो कि उसका घाव बंद कर दे, जिसमें अधिक यह उपस्थित है। रक्त निकलने से कहीं वह मर न जाय । पुरश्री- शैलाक्ष तुम्हें तुम्हारे मूलधन का शैलाक्ष- क्या यह तमस्सुक में लिखा है ? तिगुना मिल रहा है। पुरश्री- नहीं लिखा तो नहीं परंतु इससे क्या, शैलाक्ष- शपथ, शपथ, मैं शपथ जो खा चुका | इतनी भलाई यदि उसके साथ करोगे, तो तुम्हारी ही हूँ। क्या मैं झूठी शपथ खाने का पाप अपने माथे पर कीर्ति है। लूं? न, कदापि नहीं, यदि मुझे इसके बदले में शैलाक्ष- मैं नहीं करने का, तमस्सुक में वंशनगर का राज्य भी हाथ आए तो भी ऐसा न करूं। इसका वर्णन नहीं है। पुरश्री- इस तमस्सुक की मिती तो टल चुकी पुरश्री- अच्छा सौदागर साहिब, तो अब और इसके अनुसार विवेकत : जैन को अधिकार है कि आपको जो कुछ किसी से कहना सुनना हो कह सुन सौदागर के हृदय के पास से आध से मांस काट ले । लीजिए। परंतु उस पर दयाकर और तिगुना रुपया लेकर मुझे अनंत-केवल दो बातें करनी हैं, नहीं तो मैं। तमस्सूक फाड़ डालने की आज्ञा दे । सब भाँति उपस्थित और प्रस्तुत हूँ । लाओ बसंत, मुझे शैलाम-हाँ उस समय जबकि मैं लिखे अनुसार अपना हाथ दो, मैं तुमसे बिदा होता है । तुम इस बात दंड दिला पाऊँ। मुझे प्रतीत होता है कि आप एक का कदापि खेद न करना कि मुझ पर यह आपत्ति

भारतेन्दु समग्र ५२०

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