पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६२

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ठुमरी नैन नचाइ भौंह टेढ़ी करि सजन तेरी हो मुख देखे की प्रीत । बोली तासों बुद्धि उपाई। अरी बावरी सी क्यौं डोलत तुस अपने जोबन मदमाते कठिन बिरह की रीत । जहाँ मिलत तहँ हँसि हँसि बोलत गावत रस के गीत। यह घर नाहीं क्यों घुसि आई । 'हरीचन्द घर घर के भौरा तुम मतलब के मीत ।९७ सो तो आगे दूर रहत है राग आसावरी जाके हित तू पाती लाई। अरे कोऊ कहौ संदेसो श्याम को । वो तू नाम भूलि के वाको हमारे प्रान-पिया प्यार को अरु भैया बलराम को । ताहि पढ़ावन मों ढिग धाई । बहुत पथिक आवत हैं या मग नित प्रति वाही गाम को । औरहु ब्रज में बाँचनहारे तिन सों क्यो न पढ़ावत जाई । कोऊ न लायो पिय को संदेसो 'हरीचंद' के नाम को ।९८ जानि परी हमकों याही मिस राग सारंग भेद लेन घर की त. आई । हम तौ मदिरा प्रेम पिए । जी चाहे सो करें डरै नहिं या अब कबहूँ न उतरिहै यह रंग ऐसो नेम लिए । ब्रज की अति कठिन लुगाई । भई मतधार निडर डोलत नहिं कुल-भय तनिक हिये । बे-बातहि बदनाम करन की डगमग पग कछु गैल न सूझत निज मन मान किए । इनकी टेव परी मै पाई । रहत चूर अपुने प्रीतम पै तिन पै प्रान दिए । इन बैरिन पाछे या ब्रज में 'हरीचंद' मोहन छैला बिनु कैसे बनत जिए ।९९ कैसे के बसिये री माई । बैठी ही वह गुरुजन के ढिग पाती एक तहाँ ले आई । दूती समुझि बहुत पछितानी पाती लाय हाथ में दीनी कही श्याम यह तोहि पठाई । कहि भूली मैं भौन दुहाई। सुनतहि अति चकृत सी हवे रही 'हरीचंद' अति चतुर राधिका मात-पितहि लखि बहुत लजाई । यों मोहन की प्रीति छिपाई ।१०० भारतन्दु समग्र २२