पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७३

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कि झांक के सरसन लागै री। हाष भाष के भर सरोवर बहे होइ के नारे हम उन दिनु ति व्याकुल बोले, बुझे दवानल परम विरह के प्रेम-परब भी भारी मुख सों हाय पिया कहि योगे, मीन-बान के जे प्रेमी जन जल लहि भए सुखारी । प्रान आइ अटक नैनन में तेरे दरसन खागै री। भई पार न छोर दिखाये नीति-नाथ नहि नाणी । सुनि सुनि के संजोग कृविज को, 'हरीचद बल्लभ-पद-का प्रवगाहत सोई आनी।१९ करि के याद बारबो याको. हमारे नैन वहीं नदियाँ लखि भमकान बूंदर्दान की मेरे जियरा हरसन लागैरी । बीती जानि औधि सब पिय की जे हम दिया। "हरीचंद नहि बरसत पानी, अवगाहयो इन सकल अंग ब्रज अंजन को धोयो । बिरह आंगन को चत सम जानी. खोक घेद कुल-कानि बहाई सुस न रहयो खोयो । कहा कर कित जाई सेज सूनी गनि तरसन लागैरी १३ इबत हो अकुलाइ अयाहन यह रीति कैसी । सखी मन-मोहन मेरे मीत । 'हरीचंद' पिय महावाहु तुम आछत गति ऐसी ॥२० लोक येन कल-कानि ग्रॉड हम करी उनहि सो प्रीत । खेमटा विगरी जग के कारज सगर उलटी सबही नीत । अब म झवह नहि तहिं पिय की प्रेम प्रतीत ए री मेरी प्यारी आजु पौढ़ि तू हिंडोरें । यह वाह-धन नास यह इक यह हमारी रीत । खालित लतान में सेज फसाई झरत फूल चहुँ ओरे । 'हरीचंद' निधरक बिहरंगी पिय-बल दोउ जग जीत ।१४ | मंद पवन लगिहें हालन में पीतम सों भुज जोरे । 'हरीचंद हरीचंद सुख नींद सोइ तूं अपने पिय के कोरें ।२१ अरी सोहागिन तेरे ही सिर राजतिलक विधि दोनो। नोही को फायै सदर को टीको जिन पिय मन रिलीनो। पिय को अंकोर रच्ची है हिंडोर । नास्यो दरप सुन्दरीगन को भोग-भाग सब छीनो । खंभ जांधै अंक पटुली मंद मुनि झकोर । हरीनद' भय मेटि काम को राज अचल ब्रज कीनो।१५ हार झूमर पीत पट झालर लगी चहुँ ओर । सुक मोर पिक किकिनि मदत सन स्वेद बरसत जोर । श्रीराचे सबको मान हरयो जहाँ रमाक भूलत प्रान-प्यारी उमगि थोरहि धोर । अरी सुहागिन मेरी तू अब सेंदर तिलक धर्यो । 'हरीचंद' ससि श्रम-हरन बीजन रहत है तून तोर ।२२ गिरं गरव-परवत जतिन के रूप गरूर बरयो । दोऊ मिलि भूलत कुंज बितान । रीती सिद्धि भई रिषिगन की देविन दरण दर्यो । चहुं ओर एकन एक सो लगे सघन बिटप कतार । शिव समाधि छटी शुक डोल्यो रवि ससि तेज छरयो । तापें लता रहि लपट धेरे मूल सो प्रति द्वार । फूलन कप-रंग तजि दीनौ जग आनंद भयो । बहु फूल तिन मैं फूलि सोहत विविध बरन अपार । सबको भाग रुप धरामृत इकनी पान करो । तिमि अवनि तन अंकुर-मई 'हरीचंद' हरि तोहि अंक से ही निसक चिहरयो ।१६ भयो दसो दिसि इक सार । दोऊ. सुरत-अम-जल विहरत पिय-प्यारी । इक सकन लाग्य के द्वार द्वारयो नहाँ ललित हिडोल । घाव भरे दोउ सेव नाव पे बाहु बाहु मै धारी । सापै लता चहुँधा लपेटी झूमि झूमर लोल । करि बासरो पियारी को पिय पावत कोउ विधि पारी । तहझमकि भूलत होड़ बदि वदि उमगि करहि करोल 'हरीचंद' तहँ मौन बांधि गल ड्रये भयो सुखारी ।१७ खेले हँसे गेदक चलायें गाइ मीठे बोल । दोऊ. प्यारी-रूप-नदी छवि देत । झोटा बढ्यो रमकत दोऊ दिसि द्वार परसत धाइ । सुखमा-जल भरि नेह-तरंगनि बाढ़ी पिय के हेत । फरहरत चंचल खुलत बेनी अंग परत दिखाह । नैन-मीन कर-पद-पंकज सोभित केस-सिवार । टूटि मोती-माल मुक्ता गिरत भू पै आइ । चक्रवाक जुग उरज सुहाए लहर लेत गल-हार । मनु मुफ्त जन अधिकार रहत एक-रस भरी सदा यह जदपि तऊ पिय भेटि । गत लखि देत धनि गिराइ । दोऊ. 'हरीचन्द' बरसै साँवल धन बढ़त कल कल मेटि ।१८ कसी कंचुकी होत दीली खुलि सनी के बंद । आजु तन आनंद-सरिता बाढ़ी। सिथिल कबरी उड़त सारी गिरत करके छंद । निरखत मुख प्रीतम प्यारे को प्रीति तरगनि काढ़ी। प्रगट बदन दुरात झूलत में तहाँ सानंद । लोक बेद दोउ कूल तरोपर गिरे न रहे सम्हारे । मनु प्रेम-सागर मचत प्रेमाच वर्णण ३३