पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'गोरखनाथ' ऋषि के साथ उनका साक्षात हुआ था । गोरक्ष ने उन को और द्विधार तीक्ष्ण करवाल' प्रदान किया था । मंत्रपूत करके चलाने से उस तीक्ष्ण कृपाण के आघात से पर्वत भी विदीर्ण हो जाता था । वाप्या ने उसी के प्रताप से चित्तौर का सिंहासन प्राप्त किया था । भट्ट कविगण के ग्रंथ में वाप्या के नागेन्द्र नगर से प्रस्थान का यह विवरण प्राप्त होता है और इस विवरण में मेवार निवासी लोगों का प्रगाढ़ विश्वास भी है। मालव के भूतपूर्व अधिपति प्रमारवंशीय तत्काल में भारत वर्ष के सार्वभौम थे । इस वंश की एक साखा का नाम मोरी । मोरी वंशियों का इस समय में चित्तौर पर अधिकार था, कितु चित्तौर तत्काल प्रधान राजपाट था या नहीं यह निश्चित नहीं । विविध अट्टालिका और दुर्ग प्रभृति में इस वंश के राजत्व काल की खोदित लिपि विद्यमान है, उससे ज्ञात होता है कि मौरी राजागण उस समय में विलक्षण पराक्रमशाली थे। वाप्पा जब चित्तौर में उपस्थित हुए तत्काल में मोरीवंशीय मान राजा सिंहासनारूढ़ थे । चित्तौर के राजवंश के साथ उन का संबंध था । सुतरां विशेष समादर से राजा ने उन को सामत पद में अभिषिक्त करके तदुचित भूमि-वृत्ति प्रदान किया । चित्तौर के सरदार गण सैनिक नियम भोग करते थे ।३ । वे लोग समुचित सम्मानभाव से इति पूर्व में मान राजा के ऊपर विरक्त हो रहे थे । एक आगंतुक वाप्पा के ऊपर उन के समधिक अनुराग संदर्शन से वे लोग और भी सातिशय इष्यान्वित हुए । इसी समय में चित्तौर राज विदेशीय शत्रु-कर्तृक आक्रांत होने से सर्दार लोग युद्धार्थ आहूत हुए, परंतु उन लोगों ने युद्धोद्योग नहीं किया । अधिकंतु सैनिक नियमानुसार भुक्त भूमि का पट्टा प्रभृति दूर निक्षेप करके साहंकार वाक्य बोले कि राजा अपने प्रियतर सरदार को युदार्थ नियोग करें। वाप्या ने यह सुन कर उपस्थित युद्ध का भार ग्रहण करके चित्तौर से यात्रा किया । सरदार गण यद्यपि भूमि-वृत्ति-वंचित हुए थे तथापि लज्जावशत : वाप्पा के अनुगामी हुए । समर में विपक्ष गण ने पराजित होकर पलायन किया । वाप्पा ने सरदार गण के साथ चित्तौर में प्रत्यागत न होकर स्वीय पैत्रिक राजधानी गाजनी नगर में गमन किया । सलीम नामक जनैक असभ्य उस काल में गाजनी के सिंहासन पर था । वाप्पा ने सलीम को दूरीभूत करके वहाँ का सिंहासन जनैक चौर वंशीय राजपूत को दिया और आप पूर्वोक्त असंतुष्ट सरदार गण के साथ चित्तौर प्रत्यागमन किया । कथित है कि वाया ने इस समय सलीम की कन्या का पाणिग्रहण किया था । जातरोष सरदार गण ने चित्तौर राजा के साथ वैरनिर्यातन में कृतसंकल्प होकर सब ने एक वाक्य होकर नगर परित्याग करके अन्यत्र गमन किया । राजा ने उन लोगों के साथ संधि करने के मानस से बारंबार दूत प्रेरण किया, किंतु किसी प्रकार सरदार गण का कोप शांत नहीं हुआ । उन लोगों ने कहा, "हम लोगों ने राजा का नमक खाया है, इस से एक वत्सर काल मात्र प्रतीक्षा करेंगे । अनंतर उनको व्यवहार के विहित प्रतिशोध देने में त्रुटि न करेंगे।" वाष्पा के वीरत्व और उदार प्रकृति के वशवद होकर सरदार गण ने उन को चित्तौर का अधिपति करने का अभिप्राय प्रकाश किया । बाप्या ने सरदार गण के सहायता से चित्तौर नगर आक्रमण करके अधिकार कर लिया । भट्ट कविगण ने लिखा है "वाप्पा मोर राजा के निकट से चित्तौर ले कर स्वयं उस के 'मौर' (अर्थात् मुकुट सुरूप) हुए ।" चित्तौरप्राप्ति के पश्चात् सर्वसम्मति से वाप्पा ने 'हिंदूसूर्य' 'राजगुरू' और 'चक्कवै' यह तीन उपाधि धारण किया था । शेषोक्त उपाधि का अर्थ सार्वभौम । अवस्थित है। इस पर्वत में राजा और तत्पारिषदवर्ग मृगया काल में उपवेशन करते थे । उन लोगों के बैठने के स्थान सब अद्यापि असंस्कृत और जीर्ण अवस्था में पतित है। १. कथित है वह करवाल अद्यावधि विद्यामान है । राणा प्रति वत्सर में निरूपित दिवस में उस की पूजा करते २. वाप्पा की माता प्रमारवंशीया थी । सुतरा वर्तमान प्रमार के सहित मामा भागिनेय का संबंध था । ३. सैनिक नियम ( Feudal System) इस नियमानुसार से मुक्त भूमि के कर के परिवर्तन में प्रत्येक सरदार को अपने अपने वृत्ति भूमि के परिमाणनुरुप नियमित संख्या की सेना ले कर विग्रह समय में विपक्ष के साथ संग्नाम करना होता है। प्राचीनकाल में वृहत वृहत राज्य भूमि संक्रांत यह नियम प्रचलित था । भारतेन्दु समग्र ६९०